स्वधर्म का मतलब हिंदू धर्म या मुसलमान धर्म या ईसाई धर्म नहीं होता। स्वधर्म का अर्थ होता है: जो तुम्हारी स्वयं की सत्ता है, जो तुम्हारा स्वभाव है “ओशो”

 स्वधर्म का मतलब हिंदू धर्म या मुसलमान धर्म या ईसाई धर्म नहीं होता। स्वधर्म का अर्थ होता है: जो तुम्हारी स्वयं की सत्ता है, जो तुम्हारा स्वभाव है “ओशो”

ओशो- जो लोग कहते हैं कि मैं गीता, बाइबिल, कुरान आदि धर्मग्रंथों द्वारा प्रतिपादित धर्मों को नहीं मानता हूं…।कुरान बड़ी किताब है। उसमें हजारों बातें हैं। उसमें ऐसी व्यर्थ की बातें भी हैं कि एक आदमी की चार स्त्रियां होनी चाहिए। अब मैं कैसे राजी हो जाऊं? मोहम्मद ने नौ विवाह किए। मैं राजी नहीं हो सकता। लेकिन कुरान में ऐसी बातें भी हैं कि परमात्मा प्रकाश है। इससे मैं कैसे इनकार कर दूं? परमात्मा प्रकाश है। यह मेरा भी अनुभव है। लेकिन परमात्मा का प्रकाश होना और मोहम्मद की नौ शादियां, और मुसलमानों को चार शादियों की आज्ञा देना, इनमें मैं कोई तालमेल नहीं देखता। परमात्मा होगा प्रकाश, लेकिन इससे नौ पत्नियों का क्या संबंध? इसमें कोई गणित है?

और यह बात बेहूदी है; यह स्त्रियों के साथ अनाचार है। दुनिया में स्त्रियों और पुरुषों की संख्या करीब-करीब बराबर है। इसलिए अगर हर आदमी चार स्त्रियों से विवाह करने लगे, तो तीन आदमी बिना पत्नियों के रह जाएंगे। और ये तीन आदमी कुछ न कुछ उपद्रव तो करेंगे–व्यभिचार होगा, अनाचार होगा, वेश्यावृत्ति फैलेगी। और अगर एक-एक आदमी नौ-नौ पत्नियों पर कब्जा कर ले, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दस आदमियों में एक के पास तो पत्नियां होंगी, बाकी नौ आवारा! क्योंकि पत्नी यानी घर। इसलिए उसको कहते हैं घरवाली। तुमने किसी पति को सुना कहते हुए कि ये घरवाले हैं? पत्नी है तो घर, और पत्नी नहीं है तो बेघर। एक आदमी नौ पत्नियों पर कब्जा कर ले तो बाकी तो आवारा हो गए।

कृष्ण ने तो हद कर दी–सोलह हजार पत्नियां! यह तो सारी दुनिया को बरबाद करने का हिसाब हो जाएगा। मैं इससे राजी नहीं हो सकता। लेकिन कृष्ण के बहुत से सूत्रों से मैं राजी हूं। प्यारे सूत्र हैं। जहां कृष्ण कहते हैं कि स्वधर्म में मर जाना श्रेयस्कर है; परधर्म भयावह है–मैं राजी हूं। स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः। कैसे इनकार करूं?

लेकिन खयाल रखना, स्वधर्म का मतलब हिंदू धर्म या मुसलमान धर्म या ईसाई धर्म नहीं होता। स्वधर्म का अर्थ होता है: जो तुम्हारी स्वयं की सत्ता है, जो तुम्हारा स्वभाव है। उसमें ही जीओ। उसमें ही जीओगे, तो ही तुम सत्य को पा सकोगे। अगर तुमने अपनी स्वजता को, अपनी निजता को इनकार किया और तुमने किसी और को अपने ऊपर ओढ़ा, कि तुम्हारा जीवन भय से भर जाएगा। तुम्हारा जीवन जीवन कम और मौत ज्यादा हो जाएगा।

मैं इस बात से राजी हूं, लेकिन इस बात को मैं इसकी पूरी तर्क-संगति तक ले जाना चाहता हूं। तुम कृष्ण को भी मत ओढ़ना, क्योंकि वह भी परधर्म होगा। तुम्हें बांसुरी बजानी आती न हो और खड़े हो जाओ बांसुरी बजाने, और बना लो नृत्य की मुद्रा, और पहन लो पीतांबर, और बांध लो घुंघरू कमर में, और लगा लो मोर-पंख अपने मुकुट में–सिर्फ बुद्धू मालूम पड़ोगे, और कुछ भी नहीं। रासलीला वगैरह हो रही हो तो ठीक, कहीं नाटक इत्यादि में भाग ले रहे होओ तो ठीक, मगर जिंदगी में ऐसा मत कर लेना।

मैं राजी नहीं हो सकता कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों से। और इन पत्नियों में बहुत सी दूसरों की पत्नियां थीं–जो जबरदस्ती छीन कर, युद्ध के द्वारा, चुरा कर, बेईमानी से, कपट से, हर तरह से लाई गई थीं। यह बात अमानवीय है।

मेरा निर्णय व्यक्तियों को देख कर नहीं है, मेरा निर्णय तो सत्य को देख कर है। कृष्ण के जीवन में बहुत कुछ है जिससे मैं राजी नहीं हो सकता। कृष्ण के जीवन में बेईमानी है, कूटनीति है, राजनीति है, जिससे मैं राजी नहीं हो सकता। हां, कृष्ण ने जो अदभुत सत्य कहे हैं, उनसे मुझे कोई इनकार नहीं है। कैसे इनकार करूं?

कृष्ण कहते हैं, आत्मा अमर है। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि! उसे शस्त्रों से छेदा नहीं जा सकता। नैनं दहति पावकः! उसे अग्नि में जलाया नहीं जा सकता। इससे मैं राजी हूं, सौ प्रतिशत राजी हूं।

लेकिन कृष्ण की बेईमानियां और कृष्ण की धोखेधड़ियां! कृष्ण ने वचन दिया था युद्ध में अस्त्र हाथ में नहीं उठाएंगे, और उठा लिया! अपने वचन को भी पूरा न कर सके। वचन के प्रति भी एक आबद्धता नहीं है।

तो मेरे सामने हमेशा यह सवाल है कि कितने दूर तक किस व्यक्ति को समर्थन दिया जा सकता है, किस शास्त्र को कितने दूर तक समर्थन दिया जा सकता है, उतने दूर तक मैं जरूर समर्थन देता हूं। जहां तक मेरा सत्य और उस शास्त्र का सत्य समान है, वहां तक मैं राजी हूं; लेकिन जहां मेरे सत्य के विपरीत कोई बात जाती है, वहां मेरा उत्तरदायित्व मेरे सत्य के प्रति है, किसी और के सत्य के प्रति नहीं है।

और यही मेरी देशना है मेरे संन्यासियों के लिए: मुझे भी अपवाद मत समझना। कोई आवश्यकता नहीं है कि तुम मुझसे सौ प्रतिशत राजी होओ। तुम्हारी अनुभूति, तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी समाधि जहां तक मुझसे तालमेल पा सके, बस वहीं तक, उसके आगे नहीं।

चोरी का तो कोई सवाल नहीं है। लेकिन जो लोग, सत्य वेदांत, इस तरह की बातें करते हैं, उनसे पूछना कि कृष्ण की गीता में बहुत से वचन हैं जो उपनिषदों के हैं। क्या कृष्ण ने चोरी की थी? कृष्ण की गीता में बहुत से वचन हैं जो वेदों के हैं। क्या कृष्ण ने चोरी की थी? बुद्ध के वचनों में बहुत से वचन हैं जो कि उपनिषदों के हैं। क्या बुद्ध ने चोरी की थी? जीसस के वचनों में बहुत से वचन हैं जो ठीक बुद्ध के वचनों का अनुवाद हैं। जीसस को तो बुद्ध की भाषा भी नहीं आती थी, और बुद्ध के शास्त्र भी शायद अपरिचित होंगे, जीसस पढ़े-लिखे भी नहीं थे। क्या जीसस ने चोरी की थी? कबीर और नानक जो कहते हैं, वह वही तो है जो सदियों से कहा गया है। क्या ये सब चोर हैं? अगर यूं चोरी का तय करना हो, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।

लेकिन इनमें से कोई भी चोर नहीं है। इन सबने अपने सत्य को पहचाना। लेकिन चूंकि सत्य एक है, इसलिए थोड़ा-बहुत भेद हो सकता है देखने वाले की दृष्टि के कारण, देखने वाले के चुनाव के कारण, देखने वाले की भाषा के कारण, अभिव्यक्ति के कारण; लेकिन चूंकि सत्य एक है, कितना ही भेद पड़े, तब भी मूलतः एक ही सत्य तो झलकेगा। उसी सत्य के अलग-अलग पहलू होंगे। भेद होगा तो गौण, मेल होगा तो मौलिक।

लेकिन धारणाओं से भरे हुए लोगों के साथ बड़ी मुसीबत है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
रामनाम जान्यो नहीं-2