ओशो– मैं पंजाब जाता था, तो घर में ठहरा हुआ था। सुबह उठकर जब मैं अपने कमरे से बाथरूम की तरफ पीछे उनके आंगन में जा रहा था, तो बीच के कमरे से गुजरा, तो मैंने देखा कि वहां गुरु-ग्रंथ साहब को एक प्रतिमा की तरह सजा कर रखा हुआ है। चलो, कोई हरजा नहीं। लेकिन सामने ही एक लोटा भर रखा है और एक दातौन रखी है! तो मैंने पूछा कि यह मामला क्या है! तो उन्होंने कहा कि गुरु-ग्रंथ साहब के लिए दातौन।
पानी भर के लोटा रख दिया है और दातौन रख दी है। तो मैंने कहा: भले मानुषों, कम से कम टूथ ब्रश रखा होता! कुछ तो सदव्यवहार करो। अब दातौन कौन करता है? तुम दातौन करते हो? उन्होंने कहा कि नहीं। तो मैंने कहा: तुम जो नहीं करते, कम से कम वह तो मत करवाओ। मगर तुम्हारी मौज है। गुरु-ग्रंथ से जो करवाना हो करवाओ। चाहे दातौन करवाओ; चाहे टूटा ब्रश रखो। और न रखो, तो गुरु-ग्रंथ कुछ कर न लेंगे।
*अब नानक ने प्रतिमा का विरोध किया है। लेकिन प्रतिमा से क्या होता है? हम किताब ही प्रतिमा बना लेंगे!*
अब कोई राम की प्रतिमा के सामने अगर दातौन रखता हो, तो थोड़ी बात समझ में भी आती है; लेकिन किताब के सामने दातौन–तो बात ही बिलकुल मूढ़ता की हो गई। यह तो आखिरी हद्द हो गई। हो तो पंजाबी ही कर सकता है।
अगर आदमी कुछ ऐसा है…। प्रतिमा तुम्हारे वश में हो जाती है। तुम जो चाहो, जैसा चाहो–करो।
बुद्ध के पास जाओगे, तो तुम्हें बुद्ध के वश मग होना पड़ेगा।
अगर खयाल रखना: तुम जिसे पूजोगे, जाने अनजाने, तुम वही होने लगोगे। किताब पूजोगे,तो किताबी हो जाओगे। पत्थर पूजोगे, पथरीले हो जाओगे। अगर पूजना ही हो, तो चैतन्य को पूजो। पूजना ही हो, तो चेतना के नए-नए अवतारों को पूजो। पूजना ही हो, तो उठाओ आंख ऊपर की तरफ। कम से कम इतना तो होगा कि तुम्हारी पूजा तुम्हें ऊपर खींच सकेगी।
कहावत है: संग-साथ सोच कर करना चाहिए। जिनके साथ तुम रहते हो, उन जैसे हो जाते हो।