सिख अपने मन्दिर को गुरुद्वारा कहते हैं- अर्थात गुरु का द्वार। गुरु का सही अर्थ यही है- द्वार “ओशो”
ओशो– बुद्ध ने कहा है कि–गुरु को खोज लेने वाला व्यक्ति बहुत भाग्यशाली है। परन्तु मैं तुम लोगों जैसा भाग्यशाली नहीं था। मैं बिना किसी गुरु के ही काम कर रहा था। मैंने खोज की थी, लेकिन मुझे कोई मिला ही नहीं। मैंने बहुत देर तक खोज की थी, किन्तु असफल रहा। सद्गुरु का मिलना दुर्लभ है। ऐसे सिद्ध-पुरुष का मिलना मुश्किल है जो नाकुछ अर्थात शून्यवत हो गया हो। जो पूर्णतः अनुपस्थित हो, ऐसी उपस्थिती की पहचान कैसे की जा सकती है? ऐसे व्यक्ति को खोजना बहुत कठिन है जो दिव्यता का द्वार बन गया हो- दिव्यता का ऐसा द्वार जो तुम्हारे लिये बाधा नहीं बनेगा और जिसमें से तुम गुजर जाओगे।सिख अपने मन्दिर को गुरुद्वारा कहते हैं- अर्थात गुरु का द्वार। गुरु का सही अर्थ यही है- द्वार। जीसस बार-बार यही कहते हैं- मैं द्वार हूं, मैं रास्ता हूं, मैं सत्य हूं; मेरे पीछे-पीछे आओ और मुझमें से गुजर जाओ। जब तक तुम मुझमें से गुजरोगे नहीं, तब तक तुम कहीं पहुंच नहीं सकोगे। हां कभी-कभी साधक को बिना गुरु के काम करना पड़ता है। गुरु न मिलने के कारण साधक की यात्रा बहुत खतरनाक हो जाती है।
एक साल तक मैं ऐसी ही स्थिती में रहा…एक साल तक मेरी समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। एक साल तक मुझे अपने आप को जीवित रखना बहुत मुश्किल हो गया था- यह बहुत मुश्किल था क्योंकि मुझे भूख ही नहीं लगती थी। बिना खाये-पीये कईं दिन बीत जाते, क्योंकि न मुझे भूख लगती थी न प्यास। मैं जबरदस्ती अपने आपको खाना खिलाता और पानी पिलाता। शरीर का तो जैसे अस्तित्व ही नहीं रहा। यह जानने के लिये कि मैं अभी शरीर में हूं या नहीं, मुझे अपने शरीर पर बार-बार चिकूटी भरनी पड़ती या अपने सिर को दीवार पर मारता और जब दर्द होता तो मुझे सिर का अहसास होता और शरीर को थोड़ा महसूस करता। हर सुबह और शाम मैं आठ-आठ मील की दौड़ लगाता। लोग समझते कि मैं पागल हो गया हूं- रोज सोलह मील क्यों दौड़ता हूं? अपने आपसे सम्पर्क बनाए रखने के लिये मैं यह सब कर रहा था, और नया जो घट रहा था, उसकी आदत डाल रहा था।
मैंने अपने आपको अपने भीतर बिल्कुल बंद कर लिया। किसी से भी बात न करता, क्योंकि एक वाक्य भी बोलना मेरे लिये मुश्किल था। बात करते समय मैं वाक्य के बीच में भूल जाता कि मैं क्या बोल रहा था, चलते-चलते–आधा रास्ता चलने के बाद मैं भूल जाता कि मैं कहां जा रहा था? फिर मुझे वापिस आना पड़ता। किताब पढ़ने लगता तो पचास पृष्ठ पढ़ लेने के बाद मुझे यह सोचना पड़ता कि मैं क्या पढ़ रहा था? मुझे कुछ याद नहीं रहता। मेरी स्थिति तो ऐसी थी–
मनोवैज्ञानिक के आफिस के दरवाजे को धड़ाम से खोलते हुए एक आदमी भीतर आया और उसने चिल्लाते हुए कहा, “डाक्टर! आपको मेरी मदद करनी पड़ेगी। ऐसा लगता है कि मेरा दिमाग खराब हो रहा है। मुझे कुछ याद नहीं रहता। एक साल पहले की बात तो मुझे याद ही नहीं–कल जो हुआ वह भी मैं भूल जाता हूं। सचमुच मेरा दिमाग खराब हो रहा है।”
“हूँ…” मनोविश्लेषक ने सोचते हुए कहा, “इस समस्या का एहसास तुम्हें सबसे पहले कब हुआ?”
“कौनसी समस्या?” उस आदमी ने हैरानी से पूछा।
बस मेरी स्थिती भी ऐसी ही थी। एक वाक्य को पूरा करना भी मुश्किल होता था। मैं अपने आपको एक कमरे में बंद रखता। और किसी से बात नहीं करता, क्योंकि अगर मैं कुछ कहता तो उससे मेरा पागलपन प्रकट हो जाता। एक साल तक यही स्थिती थी। मैं फर्श पर लेटे-लेटे छत की ओर देखता रहता और एक से सौ तक की गिनती करता और फिर दोबारा सौ से एक तक गिनता। उस समय गिनती करना भी बहुत बड़ा काम था। मैं बार-बार भूल जाता। मुझे सामान्य स्थिति में वापिस आने के लिये एक साल लगा।
आखिर वह घटना घट गई। यह एक चमत्कार था। और मेरे लिये बहुत मुश्किल था, क्योंकि मेरा पथ-प्रदर्शन करने वाला कोई नहीं था। कोई भी मुझे यह बताने वाला नहीं था कि मैं कहां जा रहा हूं, और क्या हो रहा है? सब लोग मेरी इस स्थिती से परेशान हो रहे थे। मेरे अध्यापक, मेरे मित्र, मेरे शुभचिन्तक, सब लोग बार-बार यही पूछते–कि मैं क्या कर रहा हूं? किन्तु मैं तो कुछ भी नहीं कर रहा था। जो हो रहा था, वह मेरे बस के बाहर था। मैंने अन्जाने किसी द्वार पर दस्तक दे दी थी–अब वह द्वार खुल गया था। मैं बहुत वर्षों से ध्यान लगा रहा था, चुपचाप बैठता और कुछ नहीं करता।
धीरे-धीरे मैं उस अवकाश में प्रवेश करने लगा, उस हृदय-अवकाश में, जहां तुम होते तो हो, किन्तु कुछ भी नहीं करते। तुम केवल उपस्थिती मात्र और द्रष्टा हो जाते हो। तुम्हें दर्शक भी नहीं कहा जाता, क्योंकि तुम उपस्थिती मात्र रह जाते हो। इस स्थिती का वर्णन करने के लिये कोई भी शब्द उपयुक्त नहीं है, क्योंकि हर शब्द से यह ध्वनि निकलती है कि कुछ किया जा रहा है। नहीं, मैं कुछ नहीं कर रहा था। मैं लेटता, बैठता, चलता, परन्तु गहराई में कोई करने वाला नहीं था, कोई कर्ता नहीं था। मेरी सारी महत्वाकांक्षाएं खो गई थीं। कुछ भी होने की या कहीं पहुंचने की या परमात्मा या निर्वाण को प्राप्त करने की कोई इच्छा नहीं थी।
मैं निपट अकेला रह गया था। वह खालीपन था, और खालीपन व्यक्ति को पागल बना देता है। परन्तु यह खालीपन ही परमात्मा का एकमात्र द्वार है। अर्थात जो पागल होने को राजी हैं, वे ही सत्य को उपलब्ध होते हैं। समाधि के इस द्वार की खोज मैं बचपन से कर रहा था, पिछले जन्म से यह खोज चल रही थी। क्योंकि इस जीवन के बचपन का एक भी ऐसा दिन नहीं था, जब मैं खोज नहीं कर रहा था। सब लोग समझते कि मेरा दिमाग खराब है। मैं किसी बच्चे के साथ न खेलता, अपनी उम्र के बच्चों के साथ मैं कोई बातचीत नहीं करता, मुझे वे सब बुद्धू दिखाई देते और उनके सब काम मूर्खतापूर्ण।
मैंने कभी किसी फुटबाल टीम, वालीवाल टीम या हाकी टीम में भाग नहीं लिया। वे सब लोग मुझे सनकी मालूम होते। और जैसे-जैसे मैं बड़ा होने लगा मुझे तो सारी दुनिया ही पागल दिखाई देने लगी। अंतिम वर्ष में जब मैं इक्कीस वर्ष का था, मेरा नर्वस ब्रेक-डाउन होने लगा। स्वभावतः मेरे परिवार के लोग, मेरे मित्र, मेरे प्रोफेसर, कुछ कुछ समझने लगे कि मैं दूसरे बच्चों से इतना अलग क्यों हूं, क्यों मैं आंखे बंद करके घंटों बैठा रहता हूं, क्यों मैं नदी के किनारे बैठकर घंटों आकाश की ओर देखता रहता हूं? कभी-कभी तो सारी रात ऐसे ही बीत जाती। स्वभावतः जो लोग इन बातों को समझ नहीं सकते थे, उन लोगों ने समझा कि मैं पागल हो गया हूं।
अपने ही घर में मैं अनुपस्थित जैसा रहने लगा। धीरे-धीरे उन्होंने मुझसे कुछ भी पूछना बंद कर दिया और मेरी उपस्थिति का उन्हें आभास ही नहीं रहा।और मुझे यह बहुत अच्छा लगा कि मैं बिल्कुल न कुछ हो गया हूं, शून्य हो गया हूं, अनुपस्थित हो गया हूं। वह एक साल बहुत महत्त्वपूर्ण था। मुझे शून्य ने और खालीपन ने घेर रखा था। संसार से मेरा सम्पर्क टूट गया था।
अगर कोई मुझे नहाने की याद दिलाता, तो मैं घंटों नहाता रहता। तब दरवाजे को खटखटा कर कोई कहता–अब बाथरूम से बाहर निकलो, तुमने तो एक महीने के लिये स्नान कर लिया। अगर कोई मुझे खाने की याद दिलाता तो मैं खा लेता, नहीं तो कईं दिन बीत जाते और मैं खाना ही न खाता। मैं उपवास नहीं कर रहा था, मुझे उपवास करने या खाने का कोई विचार ही नहीं आता। मुझे तो केवल एक ही धुन थी- अपने भीतर गहरे से गहरे जाने की। और वह द्वार बहुत ही चुम्बकीय था, आकर्षक था। उसका खिंचाव बहुत तीव्र था, ठीक “ब्लैक-होल” जैसा।