क्षण-क्षण जीने के महाप्रतीक कृष्ण “ओशो”

 क्षण-क्षण जीने के महाप्रतीक कृष्ण “ओशो”

प्रश्न- “आप जो कुछ कृष्ण के बारे में कह रहे हैं, उनके गुणों को वर्णन कर रहे हैं, और ऐसा लगता है जैसे उनकी भक्ति के प्रवाह में हम बह गए हैं। ऐसा क्या संभव नहीं है कि उनमें कुछ दोष भी हों? क्या यह जरूरी है कि उनके हर कर्म को “जस्टिफाई’ ही करते चलें–चाहे वह रासलीला हो, चाहे वह वस्त्रहरण हो, चाहे अश्वत्थामा मारा गया हो यह झूठ बुलवाना हो युधिष्ठिर जैसे आदमी से? इस धारा में ही यदि हम सोचते चलें तो मुझे लगता है कि बहुत वैज्ञानिक हमारी “एप्रोच’ न हो पाएगी।’

ओशो– यह बात बहुत ठीक है। यह बात बिलकुल ठीक है कि हम कृष्ण में थोड़े दोष क्यों न देखें? लेकिन, देखने की कोशिश वैज्ञानिक होगी? देखने की चेष्टा वैज्ञानिक होगी? नहीं, हम दोष न देखें, ऐसा अगर तय करके चलें, वह भी वैज्ञानिक न होगा। हम दोष देखें ही, ऐसा सोच कर चलें, वह भी वैज्ञानिक न होगा। वैज्ञानिक तो इतना ही होगा कि हम कृष्ण को देखें, और कृष्ण जैसे दिखाई पड़ें वैसा देखें। मुझे जैसे दिखाई पड़ रहे हैं वैसा मैं कर रहा हूं। आप भी वैसा ही देखें ऐसा आग्रह करूं, तो अवैज्ञानिक हो जाएगा। आपको वैसे दिखाई पड़ जाएं, ठीक है, न दिखाई पड़ जाएं, ठीक है। आपको दोष दिखाई पड़ें, बराबर देखें, मेरी बिलकुल न मानें। मुझे जैसे दिखाई पड़ रहे हैं, मैं वैसे ही देख सकता हूं। अन्यथा देखने की कोशिश करूं तो बात वैज्ञानिक हो जाएगी, वह सिर्फ कोशिश हो जाएगी।

दूसरी बात–दूसरी बात भी सोचने जैसी है कि वैज्ञानिक “एप्रोच’! थोड़ा सोचने जैसा है कि क्या जगत में सभी चीजें ऐसी हैं जिन पर वैज्ञानिक “एप्रोच’ लागू हो सके? क्या कुछ चीजें ऐसी भी हैं जिन पर वैज्ञानिक “एप्रोच’ लागू करना अवैज्ञानिक हो? कुछ चीजें ऐसी हैं। अब जैसे प्रेम पर हम वैज्ञानिक ढंग से सोच ही नहीं सकते हैं, उपाय ही नहीं है। यह प्रेम का होना ही अवैज्ञानिक है। अगर हम वैज्ञानिक ढंग से सोचें तो हमें इनकार ही करना पड़ेगा कि प्रेम है ही नहीं। यानी और कोई अंत नहीं होगा उसका। उसका परिणाम सिर्फ एक ही होगा कि हमें प्रेम को इनकार करना पड़ेगा। प्रेम का होना ही अवैज्ञानिक है। अब इसमें कठिनाई जो है, कि या तो प्रेम को अवैज्ञानिक ढंग से सोचना पड़े–और मैं मानता हूं कि यही वैज्ञानिक होगा प्रेम के बाबत। यही “साइंटिफिक एटीटयूड’ होगी, क्योंकि प्रेम जैसा है वैसा ही सोचियेगा न? और या फिर हम प्रेम के संबंध में वैज्ञानिक ढंग से सोचें और पाएं कि प्रेम है ही नहीं।

इसे हम ऐसा समझें–

जैसा मैंने अभी कहा था, आंख देखती है, कान सुनते हैं। अगर हम आंख के ढंग से कान की सुनी हुई चीजों को सोचें तो मुश्किल हो जाएगी। आंख तो कह देगी कि कान देखते ही नहीं। स्वभावतः। और आंख सुन सकती नहीं। तो आंख यह तो मानेगी कैसे कि कान सुनते हैं? आंख यह दो बातें तय करेगी। पहली बात तो यह तय करेगी कि कान देखते नहीं, जो कि ठीक है, उसका तय करना। दूसरी बात वह यह तय करेगी कि कान सुनते नहीं–क्योंकि आंख तो सुन सकती नहीं–जो कि गलत होगा उसका तय करना।

वैज्ञानिक जो प्रक्रिया है, वह प्रक्रिया ऐसी है कि उसकी पकड़ में “मैटर’ के अतिरिक्त और कुछ कभी आता नहीं। पदार्थ के अतिरिक्त और कभी कुछ आता नहीं। आंख की पकड़ में प्रकाश के अतिरिक्त और कभी कुछ आता नहीं। कान की पकड़ में ध्वनि के अतिरिक्त और कभी कुछ आता नहीं। वैज्ञानिक प्रक्रिया जो है, “साइंटिफिक एप्रोच’ जो है, उसकी “मेथडॉलाजी’ ऐसी है कि उसकी पकड़ में पदार्थ के अतिरिक्त कभी कुछ आता नहीं। फिर एक ही उपाय रह जाता है कि वैज्ञानिक कह दे कि पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अब तो वैज्ञानिक और मुसीबत में पड़ गया है। क्योंकि पदार्थ को खोजते-खोजते वह उस जगह पहुंच गया, जहां कि अब पदार्थ भी पकड़ में नहीं आता। तो इस पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में विज्ञान को यह स्वीकृति देनी पड़ी कि कुछ ऐसा भी है जो हमारी पकड़ में नहीं आता। अगर वह इनकार कर दें कि “इलेक्ट्रान्स’ नहीं हैं क्योंकि हमारी पकड़ में नहीं आते, तो फिर “एटम’ छूट जाता है पकड़ से–क्योंकि वह पकड़ में आता है लेकिन वह उन्हीं पर खड़ा है जो पकड़ में नहीं आते।

इसलिए अब विज्ञान को पिछले बीस साल में बड़ा सिर झुकाकर एक स्वीकृति देनी पड़ी है, वह यह है कि कुछ है जो हमारी पकड़ में नहीं आता, लेकिन है। लेकिन विज्ञान एकदम स्वीकृति नहीं देगा। वह यह कहता है कि आज नहीं कल, वह हमारी पकड़ में आ जाएगा। हम कोशिश करते रहेंगे पकड़ने की। लेकिन और भी बहुत-सी चीजें, हो सकता है किसी दिन “इलेक्ट्रान’ पकड़ में आ जाएं, लेकिन लगता नहीं कि किसी दिन प्रेम भी किसी प्रयोगशाला की पकड़ में आ जाएगा। और अगर हम प्रेम को पकड़ने गए, तो शायद हो सकता है फेफड़ा पकड़ में आ जाए, हृदय पकड़ में नहीं आएगा। इसलिए वैज्ञानिक मानने को तैयार नहीं हैं कि हृदय जैसी कोई चीज आपके भीतर है। वह कहता है, फुफ्फस है, फेफड़ा है, सब है, यह हृदय की बातचीत मत करो, यह कविता है। वह कहता है, हृदय जैसी कोई चीज नहीं है। लेकिन हम कैसे मान लें कि हृदय नहीं है। क्योंकि हमारे अपने-अपने निजी अनुभव में तो हृदय आता है। बहुत क्षण हैं जब हम फेफड़े से नहीं जीते, हृदय से जीते हैं। फेफड़े से तो हम चौबीस घंटे जीते हैं, लेकिन कुछ क्षण ऐसे भी आ जाते हैं जो फेफड़े के ऊपर हावी हो जाते हैं और हृदय के हो जाते हैं। और ऐसा हृदय कभी-कभी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम फेफड़े को बलिदान कर देते हैं हृदय के लिए।

एक आदमी मर जाता है प्रेम के लिए। फेफड़ा जिलाए रखता है, और एक आदमी मर जाता है उस हृदय के लिए जो है ही नहीं। मगर अब एक आदमी मरता है, अब इसके लिए क्या करेंगे? या तो हम कह दें कि यह मरा ही नहीं, यह मरना झूठ है। मगर यह आदमी मरा। हमने मजनूं को देखा, यह हृदय के पीछे दीवाना है। या तो हम कह दें यह दीवानगी झूठ है, लेकिन झूठ भी कहिए तो भी क्या, यह है तो! इसको इनकार कैसे करिएगा, मजनूं है तो! यह गलत होगा, पागल होगा, लेकिन कहीं है तो! इसका होना भी है तो! यह लैला को सोचता है, काव्य करता है, गीत गाता है, भीतर जीता है, लेकिन कहीं जीता तो है! और फेफड़े की जांच करने से कहीं लैला पकड़ में आती नहीं, लेकिन इसके हृदय में कहीं चलती चली जाती है। इसके फेफड़े की हम सब जांच करते हैं, लैला कहीं पकड़ में आती नहीं, लैला का प्रेम कहीं पकड़ में नहीं आता। इसके फेफड़े को रखते हैं तो धड़कन पकड़ में आती है, खून की गति पकड़ में आती है, आक्सीजन पकड़ में आती है, सब पकड़ में आती है, एक चीज चूक जाती है, जिसके लिए यह पूरे फेफड़े को छोड़ने को तैयार है। यानी जिस प्रेम के लिए सब छोड़ने को तैयार है–यह सांस, यह फेफड़ा, यह फुफ्फस, यह शरीर–वह पकड़ में नहीं आती। या तो–दो ही उपाय हैं–या तो हम कह दें कि वह है नहीं। लेकिन कैसे कह दें? और या फिर यह उपाय है कि हम वैज्ञानिक ढंग को छोड़कर किसी और ढंग से उसे खोजें।

कृष्ण, वैज्ञानिक ढंग की पकड़ से अगर हम चलेंगे तो एक महापुरुष रह जाएंगे। जिनमें दोष भी होंगे, अच्छाईयां भी होंगी, बुराइयां भी होंगी। लेकिन ध्यान रहे, वह कृष्ण न रह जाएंगे। मैं जिस कृष्ण की तलाश की बात कर रहा हूं, वह किसी एक महापुरुष की बात नहीं कर रहा हूं। मैं एक “फेनामिना’, एक घटना की बात कर रहा हूं। यह घटना वैज्ञानिक पकड़ से समझ में नहीं आएगी। और इतना तो आप समझ ही सकते हैं कि मैं आदमी

विज्ञान-विरोधी नहीं हूं। यानी मैं विज्ञान को वहां तक खींचता हूं जहां तक वह कई बार खिंचता भी नहीं। जहां वह बिलकुल सांस तोड़कर, दम तोड़कर गिर जाता है तभी छोड़ता हूं। नहीं तो मैं खींचता ही चला जाता हूं आखिरी दम तक उसको। मुझ पर अगर कोई इल्जाम भी हो सकता है तो वह अति वैज्ञानिकता का हो सकता है, कम वैज्ञानिकता का नहीं हो सकता। मैं खींचता तो बहुत हूं, लेकिन मैं क्या करूं? एक जगह आ जाती है जहां विज्ञान दम तोड़ देता है। और दो उपाय हैं, या तो मैं भी वहीं खड़ा रह जाऊं, लेकिन मुझे आगे भी “स्पेस’ दिखाई पड़ती है।

“तो क्या कभी-कभी मन और हृदय, विचार और भाव एक नहीं हो जाते?’

कई बार एक हो जाते हैं। और जब वे एक हो जाते हैं तब बड़ी महत्वपूर्ण घटना घटती है।

हां, वह यह पूछ रहे हैं कि कभी-कभी मन और हृदय, विचार और भाव एक नहीं हो जाते?

हो जाते हैं। बहुत गहरे में तो एक होते ही हैं। बहुत ऊपर ही अलग-अलग होते हैं। जैसे वृक्ष की शाखाएं ऊपर अलग-अलग होती हैं और नीचे पींड में एक हो जाती हैं। ऐसा ही विचार भी हमारी एक शाखा है हमारे होने की। भाव भी हमारी एक शाखा है, हमारे होने की। ऊपर-ही-ऊपर अलग-अलग होते हैं, बहुत गहरे में तो एक होते हैं। और जिस दिन हम यह जान लेते हैं कि विचार और भाव एक हैं, उस दिन विज्ञान और धर्म दो नहीं रह जाते। उस दिन विज्ञान की एक सीमा हो जाती है, और एक अतिक्रमण का जगत भी हो जाता है जहां धर्म शुरू होता है।

कृष्ण धर्मपुरुष हैं। और मैं उन्हें धर्मपुरुष की तरह ही बात कर रहा हूं। और जैसे वे मुझे दिखाई पड़ते हैं वैसी ही मैं बात कर रहा हूं। उसमें आप उन्हें वैसा मानकर चलेंगे, ऐसा आग्रह जरा भी नहीं है। मुझे जैसा दिखाई पड़ते हैं, उसमें से अगर थोड़ा-सा भी आपको दिखाई पड़ा, तो वह आपको बदलनेवाला सिद्ध हो सकता है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
कृष्णस्मृति-8