ओशो- बुद्धिमानी का उपयोग लोग जीवन के सत्य को पाने के लिये नहीं, बुद्धिमानी का उपयोग लोग दूसरे का शोषण करने के लिये; बुद्धिमानी का उपयोग स्वयं के अनुभव को पाने के लिये नहीं, सृजनात्मक नहीं, विध्वंसात्मक करते हैं। इसलिये जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे बेईमानी बढ़ती जाती है।
विचारक हमेशा से परेशान रहे हैं कि दुनिया जितनी शिक्षित होती है उतनी बुरी क्यों हो जाती है? अशिक्षित आदमी में थोड़ी भलाई भी हो, शिक्षित आदमी में भलाई की सारी जड़ें टूट जाती हैं। और जैसे-जैसे हम शिक्षा को सुलभ बनाते हैं, वैसे-वैसे लोग साधु नहीं होते, असाधु होते चले जाते हैं।
पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक डी. एच. लारेन्स ने एक सुझाव दिया था कि अगर दुनिया से बेईमानी, बदमाशी मिटानी हो तो कम से कम सौ वर्षों के लिये हमें सभी विद्यालय, सभी विद्यापीठ बंद कर देने चाहिये।
आदमी के पास जितनी बुद्धि बढ़ती है, उतनी बुराई करने की क्षमता बढ़ती है। होना उल्टा चाहिये कि बुद्धि प्रज्ञा बने; समझ आत्मज्ञान की तरफ ले जाये; लेकिन यह होता नहीं। समझ दूसरे के विनाश की तरफ ले जाती है। शायद जिसे हम समझ कहते हैं वह समझ नहीं है, समझ का धोखा है। पूरे मनुष्य जाति का इतिहास इस बात का गवाह है, कि जैसे ही मनुष्य ने आदिम सरलता खोई, वैसे ही जीवन में कष्ट और तकलीफें बढ़ गईं।
और यह तो उस गांव में एक बदमाश था, इसने इतना उपद्रव किया, पूरे गांव को विनष्ट कर दिया। तुम्हारे गांव में तो सभी बदमाश हैं। पूरी पृथ्वी बदमाशों से भरी है। आदिम मनुष्य का भोलापन इतनी सरलता से क्यों खो जाता है? जरा-सी शिक्षा तुम्हें नष्ट क्यों कर देती है?
कुछ बातें समझनी चाहिये। पहली बात, आदिम मनुष्य का जो भोलापन है, वह वस्तुतः भोलापन नहीं है, वह केवल अभाव है। आदिम मनुष्य बेईमानी नहीं कर सकता क्योंकि बेईमानी करने के लिये एक तरह की कुशलता चाहिये, जो उसके पास नहीं है। इसलिये गांव में जो भोला आदमी दिखाई पड़ता है, वह वस्तुतः भोला नहीं है। उसको मौका मिले तो वह भी उतना ही शैतान सिद्ध होगा, जितना बड़े नगरों के लोग शैतान सिद्ध होते हैं। और अकसर तो वह ज्यादा शैतान सिद्ध होता है। अगर गांव का आदमी शिक्षित हो जाये, थोड़ा कुशल हो जाये तो शहर के आदमी से ज्यादा उपद्रवी सिद्ध होता है। क्योंकि उसके उपद्रव ऐसे हैं, जैसे कोई जमीन बहुत दिन तक बंजर पड़ी रही हो, उसमें कोई फसल न ली गई हो, फिर उसमें फसल ली जाये तो वह बहुत फसल दे। क्योंकि दूसरी जमीन तो अब शोषित हो चुकी है, उसकी जमीन बिलकुल खाली पड़ी है। गांव का सीधा-साधा आदमी जब भी शिक्षित हो जाता है, कुशल हो जाता है तो उसमें बदमाशी की बड़ी फसल लगती है। वह शहर के आदमियों को पराजित कर देता है। उसका भोलापन झूठा है।
तो दो तरह के भोलापन हैं: एक तो भोलापन है, जो संत का है। संत का भोलापन अनुभव से आया है। उसने जीवन में गुजरकर देखा है और पाया कि बेईमानी चाहे तत्क्षण कुछ भी देती मालूम पड़ती हो, अंततः सब कुछ छीन लेती है। उसने अनुभव से पाया कि दूसरे को नुकसान पहुंचाना भला पहले दिखाई पड़ता हो कि दूसरे को नुकसान पहुंचा रहे हैं, लेकिन अंततः अपने ही हाथ-पैर कट जाते हैं। उसने जीवंत अनुभव से यह सीख ली कि जो गड्ढा तुम दूसरे के लिये खोदते हो, आखिर में तुम पाओगे कि वह तुम्हारी ही कब्र बन जाती है। इस अनुभव के कारण वह बेईमानी छोड़ता है। कुशल नहीं है ऐसा नहीं, बेईमानी नहीं कर सकता है ऐसा नहीं; कर सकता है, लेकिन अनुभव ने उसे बताया कि बेईमानी हितकर नहीं है। स्वयं के हित में भी नहीं है। दूसरे को तो नुकसान पहुंचाती है अभी, और स्वयं को नुकसान पहुंचाती है अंततः, इसलिये वह भोला हो गया है, वह सरल हो गया है।
यह सरलता बड़ी कीमती है, गंभीर है, गहरी है। यह सरलता बड़ी समृद्ध है क्योंकि अनुभव का आधार है। एक गांव का ग्रामीण है, या एक छोटा बच्चा है; छोटे बच्चे गांव के ग्रामीण जैसे हैं। छोटा बच्चा भोला मालूम पड़ता है लेकिन भोला है नहीं, तैयारी कर रहा है। अभी शरारत के बीज अंकुरित नहीं हुए हैं, जल्दी ही अंकुरित होंगे। गांव का आदिम आदमी तैयारी कर रहा है, प्रतीक्षा कर रहा है। जब कुशल हो जायेगा, तब उसके खेत में बड़ी बुराई की फसल आयेगी।
हर बच्चा देवता जैसा पैदा होता है और शैतान जैसा मरता है। बच्चों की शक्ल देखें, सभी बच्चे प्यारे मालूम होते हैं। कोई बच्चा कुरूप नहीं मालूम होता, सभी बच्चे सुंदर होते हैं। फिर यह सारे सुंदर बच्चे कहां खो जाते हैं? लोगों को देखें तो लोग कुरूप मालूम होते हैं। जब वे बच्चे थे खुद, तब बड़े सुंदर थे। यह पृथ्वी सौंदर्य से भर जानी चाहिये। इतने सुंदर बच्चे पैदा होते हैं! लेकिन जैसे ही समझ बढ़ती है, जैसे ही कुशलता आती है, वैसे ही विकृति शुरू हो जाती है।
तो दो उपाय हैं आपके भी भोले होने के। एक तो उपाय है कि समझ को आने ही मत देना। एक तो उपाय है कि शिक्षित होना ही मत। एक तो उपाय है सभ्य बनना ही मत। परिस्थिति से दूर ही रहना।
गांधी जैसे विचारक इसी उपाय की सलाह देते हैं। वे कहते हैं, दुनिया से बड़े उद्योग समाप्त करो। शिक्षालय बंद करो। ट्रेनें, हवाई-जहाजें मत चलाओ। यांत्रिकता हटाओ। आदमी को वापस जंगल की तरफ ले चलो। क्योंकि जंगल का आदमी बड़ा भोला था।
उनका तर्क बहुत गहरा नहीं है क्योंकि जंगल का आदमी अगर सच में ही भोला था तो यह सारी बेईमानी फिर किससे पैदा हुई? कहां से आई? एक तो ऐसा आदमी है, जो इतना कमजोर है कि चोरी नहीं कर सकता, इसलिये साधु मालूम पड़ता है। एक आदमी इतना अशिक्षित है कि झूठ बोलने में झंझट है। झूठ बोलने के लिये थोड़ी बुद्धि चाहिये। और झूठ बोलने के लिये अच्छी याददाश्त चाहिये। अगर स्मृति कमजोर हो तो आप झूठ नहीं बोल सकते। क्योंकि घड़ी भर बाद आपको याद ही न रहेगा, किससे क्या कहा!
तो एक आदमी इसलिये सच बोलता है, क्योंकि झूठ बोलने के लिये जितनी कुशलता चाहिये, वह उसमें नहीं है। जो तकनीक बेईमानी के लिये चाहिये, वह उसमें नहीं है। लेकिन चाहता तो वह भी बेईमान होना है। तो वह प्रतीक्षा कर रहा है। जब सुविधा मिलेगी, तब वह भी बेईमान हो जायेगा। बीज पड़ा है जमीन में, वर्षा की प्रतीक्षा कर रहा है। जब बादल घिरेंगे और बरसेंगे तो बीज अंकुरित हो जायेगा।
तो गांधी जैसे विचारक सलाह देते हैं कि बादलों को बरसने ही मत दो। न बरसेंगे बादल, न बीज अंकुरित होगा। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। लेकिन यह कोई बड़ी गहरी समझ की बात नहीं है। क्योंकि बांसुरी भला न बजे, उसके स्वर तो भीतर गूंजते ही रहेंगे। बेईमानी भला बाहर न आये असमर्थता के कारण, लेकिन गहरे में बीज तो विषाक्त करता ही रहेगा। मैं इस तरह के विचारकों से राजी नहीं हूं। मैं तो कहता हूं, अनुभव से गुजरकर जो सरलता आये वही वास्तविक है। आग से गुजरकर जो सोना बचे, वही असली सोना है। इस डर से कि कहीं जल न जाये, हम आग के बाहर ही रख लें तो वह सोना असली नहीं है। और भय बता रहा है कि कचरे का डर है।
शिक्षित तो होना ही होगा। बच्चे को जवान होना ही होगा। बच्चे को बच्चे में कैसे रोका जा सकता है? आदिम आदमी सभ्य बनेगा, गांव मिटेंगे, महानगर बसेंगे। इससे बचने का कोई भी उपाय नहीं है। पीछे जाना संभव भी नहीं है। जैसे जवान बच्चा नहीं हो सकता फिर से, वैसे ही शहर के आदमी को गांव नहीं ले जाया जा सकता।
तो गांधी कितना ही कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग सुन लेते हैं, सिर हिला देते हैं, लेकिन उनका जीवन जिस ढांचे में है, वैसा ही चलता जाता है। और गांधी कितना ही कहें, उनकी खुद की जीवन-व्यवस्था भी आधुनिक यंत्रों पर ही निर्भर होती है। ट्रेन में यात्रा करनी पड़ती है, मोटर में बैठना पड़ता है। गांधी की बात का प्रचार भी करना हो तो भी बड़े प्रेस का उपयोग करना पड़ता है, लाऊडस्पीकर पर बोलना पड़ता है। इस सभ्यता के खिलाफ भी बोलना हो तो इसी सभ्यता का उपयोग करना पड़ता है। और जिसका हम उपयोग करते हैं, उसको हम नष्ट कैसे करेंगे? वह हमारे उपयोग से मजबूत होती है, बढ़ती है।
और गांधी कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं, रूसो ने, टॉलस्टॉय ने, रस्किन ने, सभी ने पीछे लौटने की बात की है। गांधी पर रस्किन, थोरो और इमर्सन का बड़ा प्रभाव है। लेकिन कोई भी पीछे लौट नहीं सकता। पीछे लौटने का कोई मार्ग ही नहीं है। सब मार्ग आगे की तरफ जाते हैं; इसलिये मेरा सुझाव गांधी से बिलकुल विपरीत है।
मेरा सुझाव है, जितनी जल्दी हो सके अनुभव से गुजरो, लेकिन अनुभव से होश पूर्वक गुजरो ताकि अनुभव तुम्हें उसकी पूर्णता में दिखाई पड़ जाये। बीज से लेकर अंत तक, प्रथम से लेकर अंत तक तुम अनुभव को देख लो। जो व्यक्ति भी अनुभव को पूरा देख लेंगे, उनके जीवन से बेईमानी मिट जायेगी।