ओशो– माया का केवल अर्थ इतना है कि सोए हुए तुमने सारे कृत्य किए हैं। सोए हुए ही तुम उनसे बचने की कोशिश कर रहे हो।
और सारी साधना का सूत्र एक है कि तुम जाग जाओ। जागते ही, सोए हुए तुमने जो किया है, वह व्यर्थ हो जाता है। वह सपने से ज्यादा नहीं है।
लेकिन तुम्हारी तरकीबें हैं। तुम कहते हो कि जब तक अनंत जन्मों के पाप न कटेंगे, तब तक कैसे ज्ञान होगा? ज्ञान कहीं तत्क्षण हो सकता है?
और मैं तुमसे कहता हूं, ज्ञान जब भी होता है, तत्क्षण होता है। ज्ञान कोई क्रमिक प्रक्रिया नहीं है कि धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे होता है। तुम जब सुबह जागते हो तो धीरे-धीरे जागते हो? एक क्षण पहले नींद थी और एक क्षण बाद होश है। दोनों के बीच में कोई ऐसी जगह होती है, जब तुम कह सको कि आधा होश है, आधा होश नहीं है? क्योंकि अगर आधा होश भी है तो नींद टूट गई। अगर तुम कहो कि जरा सा होश है, बाकी नींद है; तो भी नींद टूट गई। क्योंकि जिसको इतना भी पता है, कि जरा सा होश है, वह जाग गया।
ऐसी ही घटना घटती है अंतस के लोक में। तुम जाग जाते हो क्षण में।
सभी ने कर्म किए हैं और सभी ने बुरे कर्म किए हैं। क्योंकि बेहोशी में कोई अच्छे कर्म कर ही कैसे सकता है? पाप से परमात्मा को पाने में कोई बाधा नहीं है। जब तक तुमने परमात्मा को नहीं पाया है, तब तक पाप जारी रहेगा। परमात्मा से पाप में बाधा पड़ती है, पाप से परमात्मा में बाधा नहीं पड़ती। और अगर पाप से परमात्मा में बाधा पड़ जाए तो पाप बड़ा हो गया है, परमात्मा छोटा हो गया। पाने-योग्य भी न रहा । दो कौड़ी का हो गया। फेंक दो उसे कचरे-घर में।
तुम्हारे ध्यान के पास कभी पाप नहीं आता। और ध्यान बाधा बनता है पाप में, पाप बाधा नहीं बनता ध्यान में।इसलिए कबीर जैसे लोग, जिन्होंने जान लिया, वो कहते हैं, साधो सहज समाधि भली। व्यर्थ ही असहज मत बनो। व्यर्थ ही शीर्षासन करके खड़े मत हो जाओ; इससे कुछ हल नहीं है। व्यर्थ के उपक्रम मत करो।
बड़ी सीधी है बात, सीधा है सत्य। होना भी चाहिए। असत्य तिरछा है, आड़ा टेढ़ा है सत्य तो सीधा और सरल है। सत्य तो बिलकुल निकट है, असत्य दूर है। सत्य में तो कोई उलझन नहीं है। सिर्फ तुम्हारा मन भर उलझा हो, तो उलझन दिखाई पड़ती है। मन सुलझ जाए, सत्य बिलकुल साफ है। सदा से सुलझा हुआ है। कभी उलझा न था।
जब भीतर की चेतना कंपती रहती है, उस स्थिति का नाम ध्यान। और जब भीतर की चेतना अकंप हो जाती है, उस स्थिति का नाम समाधि। और कबीर कहते हैं, सहज ही सध जाती है.