संपदा जो दूसरे के विनाश से मिलती हो, दूसरे की मृत्यु से आती हो, या दूसरे के जीवन से आती हो, दूसरे पर निर्भर हो, उसे संपदा मत मानना, अन्यथा जिस दिन तुम सफल होओगे, उस दिन आत्महत्या के अतिरिक्त कोई मार्ग न बचेगा “ओशो”

 संपदा जो दूसरे के विनाश से मिलती हो, दूसरे की मृत्यु से आती हो, या दूसरे के जीवन से आती हो, दूसरे पर निर्भर हो, उसे संपदा मत मानना, अन्यथा जिस दिन तुम सफल होओगे, उस दिन आत्महत्या के अतिरिक्त कोई मार्ग न बचेगा “ओशो”

ओशो– तीन सूत्र खयाल रख लें। एक, अगर दूसरे को धोखा देने निकले–असफल हुए तो भी असफल होओगे; अगर पूरे सफल हुए तो भी असफल होओगे।

दूसरा, बुद्धिमानी का उपयोग दूसरे को गड्ढे में गिराने के लिये मत करना। दूसरे के लिये गड्ढा मत खोदना। क्योंकि आखिर में पाओगे कि अपनी ही कब्र खुद गई।

और तीसरी बात, संपदा जो दूसरे के विनाश से मिलती हो, दूसरे की मृत्यु से आती हो, या दूसरे के जीवन से आती हो, दूसरे पर निर्भर हो, उसे संपदा मत मानना। अन्यथा जिस दिन तुम सफल होओगे, उस दिन आत्महत्या के अतिरिक्त कोई मार्ग न बचेगा। उसको खोजना जो तुम्हारा है और सदा तुम्हारा है; स्वतंत्र है; किसी पर निर्भर नहीं है, ताकि तुम मालिक हो सको।

तुम उसी दिन आत्मवान बनोगे, जिस दिन तुम्हारा दीया बिन बाती बिन तेल जलेगा। न तुम तेल मांगने जाओगे, न तुम बाती मांगने जाओगे। सब खो जाये–थोड़ा सोचना–सब खो जाये, तो भी तुम्हारे होने में रत्ती भर फर्क न पड़े–बस, तुम जिन हो गये। तुम बुद्ध हो गये। वह जो बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हैं, उनको हमने परमात्मा कहा है, भगवान कहा है, सिर्फ इसीलिये कि उस क्षण में उन्होंने उसको पहचान लिया, जो अब सबके खो जाने से, सब नष्ट हो जाने से भी नष्ट नहीं होगा। उन्होंने समाज-मुक्त को पहचान लिया। उन्होंने दूसरे से स्वतंत्र को पहचान लिया–वह, जो दूसरे की सीमा के बाहर है, जो दूसरे से मिलता नहीं। उन्होंने ‘बिन बाती बिन तेल’ जलने वाले दीये की पहली झलक पा ली।

वह दीया तुम्हारे भीतर जल रहा है, लेकिन जब तक तुम्हारी आंखें दूसरों पर लगी रहेंगी, तब तक तुम उस दीये से परिचित नहीं हो सकते। तुम्हारी आंख भीतर मुड़नी चाहिये, दूसरों से मुक्त होनी चाहिये। दूसरों से मुक्त होना संन्यास है–दूसरों को छोड़ना नहीं, दूसरों से मुक्त होना। छोड़ने वाला शायद मुक्त नहीं होता क्योंकि वह भाग जाये जंगल, तो भी दूसरे की ही सोचता रहता है। जिसको छोड़ आया है उसकी याद आती है; अकसर ज्यादा आती है।

पत्नी को मायके भेज दो, उसकी याद ज्यादा आती है। फिर उसके दुर्गुण दिखाई नहीं पड़ते, सदगुण दिखाई पड़ने लगते हैं। इसलिये पत्नी को कभी-कभी मायके भेजना बिलकुल जरूरी है। अगर तलाक बचाना हो, तो साल में दो-तीन महीने पत्नी को मायके भेज देना बिलकुल जरूरी है। वह भी ताजी होकर आ जायेगी, तुम्हारे गुण देखने लगेगी। तुम भी ताजे होकर उसके गुण देखने लगोगे। तीन महीने बाद फिर से ‘हनीमून’ हो सकता है। एक दो दिन चलेगा। फिर दुर्गुण दिखाई पड़ने शुरू हो जायेंगे।

जंगल तुम भाग जाओ तो और भी याद आयेगी। जंगल भागे संन्यासी मेरे पास आते हैं, तो वे कहते हैं, बड़ी मुश्किल है। सिवाय स्त्री के कुछ याद नहीं आता। स्त्री ही चक्कर काटती है। मस्तिष्क पूरा का पूरा कामुकता से भर जाता है–भरेगा; क्योंकि समाज छोड़कर भागने का सवाल नहीं है, समाज से मुक्त होने का सवाल है।

मुक्ति बड़ी और बात है। मुक्ति तो इस अनुभव से आयेगी कि तुम धीरे-धीरे उस संपदा की खोज करो अपने भीतर, जो तुम्हारी है; जो तुम लेकर पैदा हुए और जो तुम मरते वक्त साथ ले जाओगे; जो जन्म के पहले भी थी और मृत्यु के बाद भी होगी। जिसको तुमने किसी से लिया नहीं है, जो उधार नहीं है। जो तुम्हारा अपना होना है, तुम्हारी अपनी संपदा है, वही आत्मा है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

”बिन बाती बिन तेल -8”