ओशो– अज्ञानी कल्पना में जीता है। कल्पना का अर्थ है कि झूठा जगत, जो उसने अपने मन से बना लिया है; जो है नहीं, पर जो उसने आरोपित कर लिया है। एक काल्पनिक जगत में जीता है अज्ञानी। जहां मित्र नहीं हैं, वहां सोच लेता है, मित्र हैं। जहां अपना नहीं है कोई, वहां सोच लेता है अपने हैं। जहां जीवन प्रतिपल मृत्यु के कगार पर खड़ा है, वहां सोच लेता है, कि सदा जीना है! जहां धन धोखा है, वहां उसी को सब कुछ मान कर जी लेता है। जहां देह आज है और कल नहीं होगी, उस देह के साथ ऐसा रससिक्त हो जाता है, कि जैसे यही मैं हूं! जहां विचार हवा की तरंगों से ज्यादा नहीं हैं, उन्हीं विचारों में इतना लीन हो जाता है, जैसे कि शाश्वत, नित्य हैं! जहां अहंकार एक झूठी मान्यता है, उस झूठी मान्यता पर सब निछावर कर देता है; मरने-मारने को राजी, उतारू हो जाता है।
कल्पना अज्ञान का सूत्र है, सत्य ज्ञान का।
सत्य का अर्थ है, जो है, उसे वैसा ही देख लेना; और कल्पना का अर्थ है, जो है उसे वैसा देखना, जैसा तुम चाहते हो। सत्य को देखने के लिए बड़ा साहस चाहिए क्योंकि जरूरी नहीं है कि सत्य तुम्हारी आकांक्षा से राजी हो। जरूरी नहीं है, कि सत्य तुम्हारी आकांक्षा के अनुकूल हो। जरूरी नहीं है, कि सत्य तुम्हारे सपनों की पूर्ति करे। उलटा ही ज्यादा जरूरी है, कि सत्य तुम्हारे सपनों को तोड़ दे।
ज्ञान के मार्ग पर वही सकता है, जो अज्ञान को स्वीकार ले।
स्वाभाविक है यह बात। क्योंकि अगर तुम्हारे पास उत्तर है ही, तो फिर किसी उत्तर की कोई जरूरत न रही। उत्तर है ही, इसका अर्थ है तुम स्वयं ही अपने गुरु हो; किसी गुरु का कोई सवाल न रहा। गुरु की खोज वही कर पाता है, जिसके पास कोई उत्तर नहीं है।
समस्या है! विराट समस्या है। समाधान का कोई ओर-छोर नहीं मिलता।
जैसे-जैसे समझ बढ़ती है, वैसे-वैसे अज्ञान की स्पष्ट प्रतीति होती है। और जिसको अज्ञान का अहसास होता है, वही केवल गुरु के द्वार पर दस्तक देने में समर्थ है। और जो परम-अज्ञान को अनुभव करता है, वही केवल गुरु के चरणों में झुक पाता है।
ज्ञानी तो झुकेगा कैसे? जो जानता ही है, उसे जनाने का उपाय न रहा। जो सोचता है कि मैं जागा ही हुआ हूं, उसको जगाने की क्या संभावना है? और मजा यह है कि तुम अपनी गहरी नींद में भी सपना देख सकते हो, कि तुम जागे हुए हो। जागे हुए होने के भी सपने आते हैं। जब आदमी नींद में देखता है कि मैं जाग गया, तब ऐसे आदमी को जगाना बड़ा मुश्किल है।
अज्ञान में भी ज्ञान के सपने आते हैं। न मालूम कितने अज्ञानी हैं, जो अपने को पंडित समझते हैं! पंडित है ही उस अज्ञानी का नाम, जिसने अपने को ज्ञानी समझ लिया है। जिसने अपने अज्ञान को ढांक लिया है शास्त्रों से लिए गए उधार शब्दों में।
इसलिए ध्यान रखाना, वास्तविक अज्ञान का बोध तो व्यक्ति को गुरु के चरणों में ले जाता है और ज्ञान का अहंकार शास्त्रों में। तब आदमी शास्त्र खोजता है, गुरु नहीं। क्योंकि शास्त्रों में समर्पण करने की कोई जरूरत नहीं है। शास्त्र तो निर्जीव हैं। उन्हें तुम चाहो जैसा उनका अर्थ कर लो।