ओशो– मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में सफर कर रहा था। उसकी पत्नी उसके बगल में ही बैठी थी। और सामने की ही सीट पर एक बहुत सुंदर युवती बैठी थी। मुल्ला आंख बचा-बचा कर उस सुंदर युवती को देख लेता था। पत्नी तो जली जा रही थी। लेकिन मुल्ला ने कुछ हरकत भी नहीं की थी कि कुछ कहे। और देखता भी इस ढंग से था जैसे अनायास, इधर से उधर देखते हुए दिखाई पड़ गई। घूर कर भी नहीं देख रहा था, नहीं तो ठिकाने लगा देती। उस युवती का पति भी मौजूद था, इसलिए थोड़ा ढाढ़स भी था उसे कि घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। मुल्ला नसरुद्दीन बिलकुल खिड़की के पास बैठा हुआ था। उसके खीसे से एक रूमाल हवा के झोंके खा-खा कर धीरे-धीरे सरक आया था बाहर। सामने बैठी स्त्री ने कहा, महानुभाव, रूमाल को सम्हालिए, नहीं तो उड़ जाएगा बाहर। बस मुल्ला की पत्नी टूट पड़ी। उसने कहा, कलमुंही, तेरे पति की सिगरेट से उसका कोट जल रहा है, मैं तो कुछ नहीं बोली, घंटे भर से देख रही हूं। मेरे पति का रूमाल उड़े या न उड़े, तुझे क्या लेना-देना?
इस जगत में जिसको हम प्रेम कहते हैं वह तो बहुतर् ईष्या से भरा हुआ है। वह तोर् ईष्या का ही एक नाम है। और तुम्हारे पंडितों ने तुम्हें समझाया है कि परमात्मा भी बड़ार् ईष्यालु है। अपने बेटे से भी प्रेम करोगे तो उसे जलन हो जाएगी। अपने भाई को प्रेम करोगे तो वह नाराज हो जाएगा। अपनी पत्नी को चाहोगे तो वह फिर दोजख में डालेगा, नरक में सड़ाएगा–कि मेरे रहते और तुमने अपनी पत्नी को चाहा! अपने पति को चाहा!
मैं तुमसे यह नहीं कह सकता हूं। इन मूढ़ों के कारण ही जगत से प्रेम खो गया। और जब प्रेम खो जाता है तो प्रार्थना कहां बचेगी? जब फूल ही न बचे तो इत्र कहां से आएगा? मैं तुमसे कहता हूं: खूब प्रेम करो, जी भर कर प्रेम करो–पत्नी को, पति को, बच्चों को, भाई को, मित्रों को। सिर्फ एक खयाल रखना, कोई सीमा न बने। जैसे कंकड़ फेंकते हो झील में, एक जगह गिरता है, मगर उसकी लहर उठती है तो उठती ही चली जाती है, दूर-दूर…दूर-दूर के किनारों को छुएगी वह लहर। और इस अस्तित्व का तो कोई किनारा नहीं है। तुम्हारे प्रेम से जो लहरें उठें वे जाएं दूर-दूर अनंत तक।
प्रेम कहीं रुके न तो प्रार्थना बन जाता है। प्रार्थना प्रेम के विपरीत नहीं है; प्रेम की कंकड़ी से उठी हुई लहरों का ही विस्तार है। इसलिए अपने प्रेम को निखारो। प्रेम से भागना मत, प्रेम को संवारो। प्रेम की बगिया को पानी दो, खाद दो।
मैं जो प्रार्थना तुम्हें सिखा रहा हूं वह प्रेम का ही शुद्धतम रूप है। इसलिए कठिन भी नहीं, सीखने की जरूरत भी नहीं, क्योंकि प्रेम तो तुम निसर्ग से ही लेकर आए हो। हर बच्चा प्रेम की क्षमता के साथ पैदा होता है। जैसे हर बीज में फूल छिपा है, ऐसे हर आत्मा में प्रेम छिपा है।
मगर तुम्हें इस ढंग की बातें सिखाई गई हैं कि तुम्हारा प्रेम विकसित नहीं हो पाता। सब जगह कारागृहों में कैद हो जाता है। और जब प्रेम कारागृह में कैद हो जाता है तो सड?ने लगता है। और प्रेम अगर सड़ता है तो उससे बहुत दुर्गंध उठती है। यह सारी पृथ्वी प्रेम की दुर्गंध से भर गई है।
क्यों सड़े हुए प्रेम से दुर्गंध उठती है? क्योंकि प्रेम अगर विकसित होता तो सुगंध उठती। जिससे सुगंध उठती है वह अगर सड़ जाए तो दुर्गंध उठती है। अपने प्रेम को सड़ने मत देना, उसे कहीं रुकने मत देना। उसकी कोई सीमा मत मानना, उसकी कोई परिभाषा मत बनाना। मत कहना कि मैं हिंदू को ही प्रेम करूंगा, क्योंकि मैं हिंदू हूं। मत कहना कि मैं भारतीय को ही प्रेम करूंगा, क्योंकि मैं भारतीय हूं। कोई सीमा मत बनाना–न देश की, न जाति की, न वर्ण की। तुम्हारा प्रेम अबाध बहता रहे। प्रेम तुम्हारा धर्म हो। फिर देर नहीं होगी कि तुम जल्दी ही प्रार्थना से परिचित हो जाओगे। यह प्रेम के ही वृक्ष की अंतिम शाखाओं पर प्रार्थना का फूल खिलता है
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ [ काहे होत अधिर.प्रवचन-10 ]