ध्यान की साधना तो कठिन है, लेकिन असंभव नहीं; पर ध्यान की अभिव्यक्ति असंभव है “ओशो”

 ध्यान की साधना तो कठिन है, लेकिन असंभव नहीं; पर ध्यान की अभिव्यक्ति असंभव है “ओशो”

ओशो– ध्यान करना आसान है। ध्यान क्या है, यह बताना अति कठिन है; करीब-करीब असंभव। क्योंकि ध्यान इतनी भीतरी अनुभूति है, शब्द उसे प्रगट नहीं कर पाते। और जो भी शब्दों में उसे प्रगट करने की कोशिश करता है, वह अनुभव करता है कि जो कहना चाहता था, वह नहीं कहा गया। जो नहीं कहना था, वह शब्दों से प्रगट हो गया। जो कहना था वह भीतर छूट गया। खाली कोरे शब्द चले गए–मुर्दा! निष्प्राण!ध्यान कर लेना इतना कठिन नहीं, लेकिन ध्यान से जो जाना जाता है वह उसे बता देना, जिसने कभी ध्यान न किया हो; करीब-करीब असंभव है।

यह कहानी ध्यान की कठिनाई के संबंध में नहीं है, यह कहानी ध्यान को बताने के संबंध में है।

कहानी बड़ी प्रीतिकर है। एक आदमी लटका है एक वृक्ष के पत्तों को मुंह से पकड़े हुए। मुंह ही एकमात्र सहारा है; उसी से वह वह वृक्ष से लटका है। नीचे भयंकर खड्ड है। बोला, कि गया! और वहां उससे कोई पूछता है कि बोधिधर्म भारत से चीन क्यों आया?

पहले तो इस सवाल को समझ लें कि झेन परंपरा का यह पारिभाषिक सवाल है। कोई चौदह सौ वर्ष पहले एक बहुत अनूठा आदमी भारत से चीन गया। उस अनूठे आदमी का नाम था बोधिधर्म। भारत से जो लोग बाहर गये हैं, इससे ज्यादा अनूठा आदमी कभी भारत के बाहर नहीं गया।

बोधिधर्म चीन क्यों गया? झेन फकीर इस सवाल को पूछते हैं। यह एक पहेली है। बोधिधर्म भारत से चीन गया, बड़े गहन कारण थे उसके। उसके पास कोई संपदा थी, जो वह किसी को देना चाहता था; लेकिन लेने वाला आदमी न मिला। मजबूरी में उसे चीन जाना पड़ा खोजने, इस आशा में कि शायद कोई चीन में मिल जाये।

संपदा सभी को तो नहीं दी जा सकती। हीरे उन्हीं को दिये जा सकते हैं जो पारखी हों; अन्यथा हीरे फेंक दिए जायेंगे, खो जायेंगे। क्योंकि जो नहीं जानते उनके लिए तो हीरा पत्थर है; उनके लिए हीरा खिलवाड़ हो जायेगा और खोने में ज्यादा देर न लगेगी।

ध्यान की जो संपदा है, वह तो अदृश्य है; उसके पारखी खोजना तो बहुत मुश्किल है। और जो उसे लेने को तैयार न हों उन्हें देने का कोई उपाय नहीं है। अभी जिनके हृदय के द्वार बिलकुल खुले हों, केवल वे ही उस संपदा को संभाल पाएंगे।
तो बोधिधर्म दरवाजे खटखटाता था अनेक लोगों के लेकिन पाया उसने कि कोई आदमी खोजना मुश्किल है। आखिर भारत जैसे देश में, जहां ध्यान की इतनी लंबी परंपरा है, कि इतनी लंबी परंपरा संसार में कहीं भी नहीं; वहां बोधिधर्म को एक आदमी न मिला, जिसको वह ध्यान की संपदा दे देता? इसलिए प्रश्न पूछने जैसा है कि बोधिधर्म चीन क्यों गया?

लेकिन उसके पीछे कारण हैं। इसी कारण कि भारत के पास ध्यान की बड़ी पुरानी संपदा है, भारत ने उसे खो दिया। कुछ संपदाएं ऐसी हैं कि उन्हें अगर रोज नया न किया जाये, तो वे खो जाती हैं। कुछ संपदाएं ऐसी हैं कि अगर पुरानी हो जायें, सड़ जाती हैं। कुछ संपदाएं ऐसी हैं कि अगर आप आश्वस्त हो जायें कि वे आपके हाथ में हैं, तो आपके हाथ रिक्त हो जाते हैं।

भारत की ध्यान की परंपरा अति प्राचीन है। इतिहास के पार जाती है यात्रा; प्रागैतिहासिक है। मोहनजोदड़ो, हरप्पा जैसे पुराने अवशेष, वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई सात हजार वर्ष पुराने हैं। वहां भी मूर्तियां मिली हैं, जो ध्यानस्थ हैं। सात हजार साल पहले भी हरप्पा और खजुराहो में कोई न कोई ध्यान कर रहा था।

फिर बोधिधर्म को भारत में कोई मिल क्यों न सका ग्राहक, खरीददार? परंपरा इतनी पुरानी हो गई, और शब्द इतने रटे-रटाये हो गए, और शास्त्र इतने कंठस्थ हो गए, कि लोग ध्यान के संबंध में तो जानने लगे, ध्यान को भूल गए। और ध्यान के संबंध में जानना एक बात, ध्यान को जानना बिलकुल दूसरी बात।

प्रेम के संबंध में जानना एक बात, और प्रेम को जानना बिलकुल दूसरी बात। आप पंडित भी हो सकते हैं, प्रेम के संबंध में सारा शास्त्र पढ़ डालें। प्रेम पर शोधकार्य भी कर सकते हैं। कोई विश्वविद्यालय आपको डी. लिट. की डिग्री भी दे दे, लेकिन प्रेम करना बात और है; क्योंकि प्रेम करने में तो मिटना होता है। प्रेम तो बड़ी खतरनाक यात्रा है। वहां तो अहंकार समाप्त होता है। वहां तो बूंद खोती है सागर में।

प्रेम तो इस जगत में असंभव जैसी घटना है क्योंकि वहां आप कम महत्वपूर्ण और दूसरा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। वहां आपकी आत्मा जैसे दूसरे में समा जाती है। जैसे उसका जीवन आपका जीवन, उसकी मृत्यु आपकी मृत्यु हो जाती है। यह असंभव घटना है। दूसरे का साधन की तरह उपयोग नहीं, साध्य की तरह उपयोग–असंभव है। तो प्रेम तो बहुत कठिन है। प्रेम के संबंध में जानना बहुत आसान है। शास्त्र खरीदे जा सकते हैं। सिद्धांत कंठस्थ हो सकते हैं।

ध्यान के संबंध में भारत को इतनी बातें पता चल गईं कि लोगों ने समझा कि अब ध्यान करने की कोई जरूरत नहीं; सब मालूम है। और जब सब मालूम ही है तो अब और खोज करने को क्या रहा? बुद्ध-महावीर खो गए, बुद्ध और महावीर की वाणी हाथ में रह गई।

बोधिधर्म भटकता रहा। पंडित उसे मिले जो बड़े जानकार थे। शास्त्र जिनकी जीभ पर रखा था। सरस्वती के जो वरद-पुत्र थे और गणित में उनका कोई मुकाबला न था। तर्क उनसे करें तो हार के सिवाय आपको कुछ भी न मिलेगा। लेकिन वे आंखें न मिलीं, जो ध्यानस्थ हों। वह हृदय न मिला, जो ध्यान से भरा हो। वह व्यक्तित्व न मिला, जो ध्यान की समाधिस्थ अवस्था में हो; जिसको संपदा बोधिधर्म दे दे। पंडित मिले बहुत, आचार्य मिले बहुत, जानकार मिले बहुत, अनुभवी न मिला।

झेन फकीर पूछते हैं कि बोधिधर्म चीन क्यों गया? भारत में आदमी न मिला ध्यान करनेवाला, तो चीन जाना पड़ा?

यह प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण है। क्योंकि बोधिधर्म के जाने के साथ ही भारत का अध्यात्म तिरोहित हो गया। बोधिधर्म का जाना इस बात का सूचक था कि अध्याय समाप्त हुआ। अब यहां रूखे-सूखे लोग हैं, उनमें हरियाली खो गई। अब यहां निष्प्राण कर्ब्रें हैं। अब उनमें मंदिर का खोजना मुश्किल है। बोधिधर्म का भारत के बाहर जाना किसी ध्यानी व्यक्ति की तलाश में…भारत की गरिमा जैसे अस्त हो गई! भारत से सूर्य जैसे विदा हो गया!

लेकिन बोधिधर्म चीन ही क्यों गया? बड़ी दुनिया थी, कहीं भी जा सकता था। आखिर चीन क्यों चुना? इसलिए प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण है।

भारत क्यों छोड़ा?

भारत इसलिए छोड़ा कि कोई ध्यानी न मिला, जिसको संपदा दे दे।

चीन क्यों गया?

चीन में थोड़ी आशा थी, क्योंकि भारत में अगर बुद्ध पैदा हुए तो चीन में लाओत्से पैदा हुआ। दोनों करीब-करीब एक ही समय में पैदा हुए। जब भारत में बुद्ध थे, तब चीन में लाओत्से था। और बुद्ध ने तो थोड़ा-बहुत शब्दों का भी उपयोग किया, लाओत्से ने शब्दों का बिलकुल उपयोग नहीं किया। और भारत तो पांडित्य से भर गया, लेकिन लाओत्से की जीवनधारा अभी भी बह रही थी, जो अभी पांडित्य से नहीं भरी थी। क्योंकि लाओत्से का पूरा-पूरा जोर पांडित्य के विपरीत था, जानकारी के विरोध में था, सूचनाओं से कोई सार नहीं।

लाओत्से का बुद्धत्व बुद्ध से भी ज्यादा शब्द-शून्य है।
तो जहां लाओत्से की हवा थी, सोचा बोधिधर्म ने कि शायद वहां कोई व्यक्ति मिल जाये। और अगर लाओत्से और बुद्ध का मिलन हो जाये तो जो धारा पैदा होगी, वह सदियों तक बहेगी। यह एक ‘क्रास ब्रीडिंग’ का बड़ा गहरा प्रयोग था। हम पश्चिम से सांड़ को खरीदकर लाते हैं; भारतीय गाय, पश्चिम का सांड़–तो जो बच्चे पैदा होंगे वे सबल होंगे, सक्षम होंगे, ज्यादा दूध देनेवाले होंगे।

जो हम सांड़ के साथ करते हैं, वह बोधिधर्म ने ध्यान के साथ किया। यहां बुद्ध की धारा थी, महावीरों की धारा थी, उपनिषदों की धारा थी। एक बड़ी गहरी क्रांतिकारी खोज थी लेकिन उसको संभालनेवाला नहीं मिल रहा था। संपदा इतनी बड़ी थी, कि उतना बड़ा हृदय नहीं मिल रहा था। शायद लाओत्से की धारा में कोई जिंदा हो! और अगर इन दोनों का मिलन हो जाये तो एक ऐसा नया जीवन-प्रयोग होगा कि शायद बहुत जी सके। और बोधिधर्म सही साबित हुआ।

झेन वह परंपरा है, जो बुद्ध और लाओत्से के मिलने से पैदा हुई। तो झेन न तो बौद्ध है, और न ताओवादी है, झेन दोनों का मिलन है। इसलिए झेन में जो मधुरिमा है, वह न बुद्ध की धारा में है, न लाओत्से की धारा में है। जब भी दो भिन्न धाराएं मिलती हैं तो जिस बच्चे का जन्म होता है, वह अनूठा होता है। जितने दूर की धाराएं हों, उतनी ही अद्वितीय संतति पैदा होती है।

इसलिए हम भाई-बहन को शादी नहीं करने देते क्योंकि भाई-बहन इतने करीब हैं, बच्चा बहुत अच्छा नहीं हो सकता। तनाव नहीं होगा। और जब तनाव नहीं होगा तो जीवन क्षीण होगा। अगर भाई-बहन विवाह करें तो बच्चे की उम्र ज्यादा नहीं होगी। बच्चा जल्दी मर जायेगा। और बच्चे में प्रतिभा भी नहीं होगी, क्योंकि प्रतिभा के लिए बड़ी दूर की धाराओं का मिलन चाहिए। तब एक नयी चीज की उत्पत्ति होती है। भाई-बहन इतने एक जैसे हैं कि उन्हीं जैसा एक बच्चा पैदा होगा; अद्वितीय नहीं होगा, बेजोड़ नहीं होगा। इसलिए सारी दुनिया में भाई-बहन की शादी को हम रोकते हैं। संबंधियों की शादी को रोकते हैं–जितना दूर का हो…।

अगर यह तर्क ठीक से समझा जाये; और इससे जीवन-शास्त्री राजी हैं कि तर्क ठीक है। तो इसका मतलब यह हुआ कि जहां तक बन सके न केवल जाति, न केवल परिवार की निकटता को रोकना चाहिए बल्कि खून, रंग, भाषा जितनी दूर की हो, जितनी अंतर्राष्ट्रीय शादी हो, उतना बच्चा ज्यादा सप्राण पैदा होगा। और जब दूर-दूर की धाराएं मिलती हैं तब ऐसे बच्चे पैदा होते हैं…

ऐसा और भी दफा हुआ है। बुद्ध और लाओत्से के मिलन से झेन पैदा हुआ। इस्लाम और हिंदुओं के मिलन से सूफी चिंतना पैदा हुई। ईसाइयत और यहूदियों के मिलन से हसीद पैदा हुए। और ये तीनों धाराएं सबसे ज्यादा जीवंत धाराएं हैं। इस समय पृथ्वी पर जो सबसे ज्यादा मूल्यवान है, वह यह इन तीन धाराओं में है–होना भी चाहिए। बुद्ध जैसा पिता और लाओत्से जैसी मां; या लाओत्से जैसा पिता और बुद्ध जैसी मां मिल सके तो जो संतति पैदा होगी, वह अप्रतिम होगी।

क्यों गया बोधिधर्म भारत से चीन?

बोधिधर्म बुद्ध जैसा था। बुद्ध भी मिल जाते तो बोधिधर्म को ठीक अपने जैसा पाते; पाते कि जैसे दर्पण में देख रहे हैं अपने को। वह लाओत्से की तलाश में गया और चीन में उसने खोज की; और आदमी खोज लिया, जिसके हृदय में यह अपने हृदय को उंड़ेल सका।

इस पर एक बड़ी जिम्मेवारी थी। महाकाश्यप को जो बुद्ध ने दिया था और महाकाश्यप के बाद जो अलग-अलग गुरुओं को सक्सेशन में मिला था, परंपरा से मिला था, वह बोधिधर्म के पास था।

ऐसा कठिन सवाल पूछ रहा है एक आदमी उससे, जो मुंह के बल लटका हुआ है खाई के ऊपर, वह उससे पूछ रहा है कि बोधिधर्म भारत से चीन क्यों गया?

कथा कहती है कि अगर यह आदमी बोले, तो मरे। क्योंकि वाणी निकली, कि इसकी जो पकड़ है वृक्ष से, वह छूट जायेगी। बोला कि मरा। न बोले तो भटक जाये; न बोले तो भटक जाये इसलिए, कि जिसके पास भी ध्यान की संपदा हो, वह अगर देने से इंकार करे तो वह संपदा खो जाये। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

इस जगत में दो तरह की संपदाएं हैं; एक तो अगर आप दें, तो खो जाती है। धन है आपके पास; अगर आप दें तो खो जायेगा। अगर बचाना है तो अपना तो देना ही मत; दूसरे का छीनना। ऐसी संपदा जो देने से खो जाती है और छीनने से बढ़ती है, उसको ही हमने पाप कहा है। और एक और संपदा है पुण्य की, जिसका नियम इसके ठीक विपरीत है। अगर रोको, मर जाती है; दे दो, बच जाती है। जितना बांटो उतना बढ़ती है, जितना बचाओ उतना सड़ती है। बाहर की संपदा छीननी पड़ती है, शोषण करना पड़ता है; भीतर की संपदा का दान करना पड़ता है। भीतर और बाहर के नियम बिलकुल अलग हैं।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिला-3

”बिन बाती बिन तेल -3”