ओशो– जितना आधुनिक मनुष्य है, उतना ही ज्यादा कम प्राकृतिक, उतना ही ज्यादा कृत्रिम, उतना ही ज्यादा प्लास्टिक; असली नहीं, नकली। उसकी गंध नकली, उसका रंग नकली, उसका सब नकली! ओंठ रंग लिए हैं लिपस्टिक से, वह उसका रंग है ओंठों का। असली ओंठों का तो पता ही चलना मुश्किल हो गया है। कपड़े पहन लिए हैं इस ढंग से कि असली शरीर का पता चलना मुश्किल हो गया है। जिनकी छातियां नहीं हैं, उन्होंने कोटों में रुई भरवा ली है। हम सब तरफ से कृत्रिम में जी रहे हैं। और यंत्र बढ़ते जा रहे हैं। और मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई सदा से यह रही कि मनुष्य मूर्च्छित है। यंत्रों के बीच और भी मूर्च्छित हो गया है, और भी यांत्रिक हो गया है।तुम मुझसे पूछते हो: ‘आधुनिक मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई क्या है?’
यांत्रिकता। यंत्रों के साथ रहोगे तो यांत्रिक हो ही जाना पड़ेगा। यदि बहुत जागरूक न रहे, तो सुबह सात बजे की गाड़ी पकड़नी है तो उसी ढंग से भागना होगा। कोई गाड़ी तुम्हारे लिए रुकी नहीं रहेगी। तुम अपनी निश्चिंतता की चाल नहीं चल सकते। तुम पक्षियों के गीत सुनते हुए नहीं जा सकते। आपाधापी है, भागमभाग है।
विद्यासागर ने लिखा है, एक सांझ वे घूम कर लौट रहे थे और उनके सामने ही एक मुसलमान सज्जन अपनी सुंदर छड़ी लिए हुए, टहलते हुए वे भी आ रहे थे। मुसलमान सज्जन का नौकर भागा हुआ आया और उसने कहा: मीर साहब, जल्दी चलिए! घर में आग लग गई है।
लेकिन मीर साहब वैसे ही चलते रहे। नौकर ने कहा: आप समझे या नहीं समझे? आपने सुना या नहीं सुना? घर जल रहा है, धू-धू कर जल रहा है! तेजी से चलिए! यह समय टहलने का नहीं है। दौड़ कर चलिए!
लेकिन मीर साहब ने कहा: घर तो जल ही रहा है, मेरे दौड़ने से कुछ आग बुझ न जाएगी। और यहां तो सभी कुछ जल रहा है और सभी को जल जाना है। जीवन भर की अपनी मस्ती की चाल इतने सस्ते में नहीं छोड़ सकता।
विद्यासागर तो बहुत हैरान हुए। मीर साहब उसी चाल से चलते रहे! वही छड़ी की टेक। वही मस्त चाल। वही लखनवी ढंग और शैली। विद्यासागर के जीवन में इससे एक क्रांति घटित हो गई। क्योंकि विद्यासागर को दूसरे दिन वाइसराय की कौंसिल में महापंडित होने का सम्मान मिलने वाला था। और मित्रों ने कहा कि इन्हीं अपने साधारण, सीधे-सादे, फटे-पुराने वस्त्रों में जाओगे, अच्छा नहीं लगेगा। तो हम ढंग के कपड़े बनवाए देते हैं, जैसे दरबार में चाहिए। तो वे राजी हो गए थे। तो चूड़ीदार पाजामा, और अचकन, और सब, ढंग की टोपी और जूते और छड़ी, सब तैयार करवा दिया था मित्रों ने। लेकिन इस मुसलमान, अजनबी आदमी की चाल, घर में लगी आग, और यह कहता है कि क्या जिंदगी भर की अपनी चाल को, अपनी मस्ती को, एक दिन घर में आग लग गई तो बदल दूं?
दूसरे दिन उन्होंने फिर वे बनाए गए कपड़े नहीं पहने। वाइसराय की दुनिया में पहुंच गए वैसे ही अपने सीधे-सादे कपड़े पहने।
मित्र बहुत चकित हुए। उन्होंने कहा: कपड़े बनवाए, उनका क्या हुआ?
उन्होंने कहा: वह एक मुसलमान ने गड़बड़ कर दिया। अगर वह मकान में आग लग जाने पर अपनी जिंदगी भर की चाल नहीं छोड़ता, तो मैं भी क्यों अपने जीवन के ढंग और शैली छोडूं जरा सी बात के लिए कि दरबार जाना है? देना हो पदवी, दे दें; न देना हो, न दें। लेकिन जाऊंगा अब अपनी ही शैली से।
मगर आज सब तरफ यंत्र कसे हुए है। यहां शैली नहीं बच सकती, व्यक्तित्व नहीं बच सकता, निजता नहीं बच सकती। यदि तुम अत्यधिक होश से न जीओ, तो यंत्र तुम पर हावी हो जाएगा, तुम पर छा जाएगा। तुम घड़ी के कांटे की तरह चलने लगोगे और मशीन के पहियों की तरह घूमने लगोगे। और धीरे-धीरे तुम्हें भूल ही जाएगा कि तुम्हारे भीतर कोई आत्मा भी है!