परमहंस रामकृष्ण के जीवन के दो उल्लेखनीय प्रसंग, राग से कभी कोई तृप्त नहीं हुआ “ओशो”

 परमहंस रामकृष्ण के जीवन के दो उल्लेखनीय प्रसंग, राग से कभी कोई तृप्त नहीं हुआ “ओशो”

प्रश्न : परमहंस रामकृष्ण के जीवन में दो उल्लेखनीय प्रसंग हैं। एक कि वे एक हाथ में बालू और दूसरे में चांदी के सिक्के रख कर दोनों को एक साथ गंगा में गिरा देते थे। और दूसरा कि जब स्वामी विवेकानंद ने उनके विस्तर के निचे चांदी का सिक्का छिपा दिया तो परमहंस देव बिस्तर पर लेटते ही पीड़ा से चीख उठे थे। महागीता के वीतरागता के सूत्र के संदर्भ में इन दो प्रसंगों पर हमें कुछ समझाने की अनुकंपा करें।

ओशो– रामकृष्ण के जीवन के ये दोनों प्रसंग अब तक ठीक से समझे भी नहीं गये हैं; क्योंकि जिन्होंने इनकी व्याख्या की है, उन्हें परमहंस दशा का कुछ भी पता नहीं है। इनकी व्याख्या साधारण रूप में की गई है। रामकृष्ण एक हाथ में चांदी और एक हाथ में रेत को रख कर गंगा में गिरा देते हैं, तो हम समझते हैं कि रामकृष्ण के लिए चांदी और मिट्टी बराबर है। स्वभावत; यह सीधा अर्थ हो जाता है। लेकिन अगर यही सच है कि रामकृष्ण के लिए सोना और मिट्टी चांदी और मिट्टी बराबर है, तो दोनों हाथों में मिट्टी रख कर क्यों नहीं गिरा देते? एक हाथ में चांदी रख कर क्यों गिराते हैं? कुछ फर्क होगा। कुछ थोड़ा भेद होगा। नहीं यह व्याख्या ठीक नहीं है।रामकृष्ण के लिए तो कुछ भी भेद नहीं है। और यह गिराना भी रामकृष्ण के लिए अर्थहीन है। रामकृष्ण विरागी नहीं हैं वीतरागी हैं। यह विरागी के लिए तो ठीक है कि विरागी कहता है मिट्टी–चांदी सब बराबर, सब मेरे लिए बराबर है, यह सोना भी मिट्टी है। यह विरागी की भाषा है। रामकृष्ण वीतरागी हैं। यह परमहंस की भाषा हो नहीं सकती फिर रामकृष्ण ऐसा क्यों कर रहे हैं? यह उनके लिए कर रहे होंगे जो उनके आसपास थें। यह उनके लिए संदेश है। जो राग में पड़ा है, उसे पहले विराग सिखाना पड़ता है। जो विराग में आ गया, उसे फिर वीतरागता सिखानी पड़ती है। कदम-कदम चलना होता है। और रामकृष्ण कहते थे, हर अनुभव से गुजर जाना जरूरी है।

तुम बहुत चकित होओगे, मैं तुम्हें उनके जीवन का एक उल्लेख बताऊं। शायद तुमने कभी सुना भी न हो, क्योंकि उनके भक्त उसकी बहुत चर्चा नहीं करते। जरा उलझन भरा है।

रामकृष्ण ने एक दिन मथुरानाथ को–उनके एक भक्त को–कहा कि सुन मथुरा, किसी को बताना मत, मेरे मन में रात एक सपना उठा कि सुंदर बहुमूल्य सिल्क के कपड़े पहने हुए हूं गद्दा–तकिया लगा कर बैठा हूं और हुक्का गुड़गुड़ा रहा हूं। और हुक्का गुड़गुड़ाते मैंने देखा कि मेरे हाथ पर जो अंगूठी सोने की बड़ी शानदार है, उसमें हीरा जड़ा है। अब तुझे इंतजाम करना पड़ेगा, क्योंकि जरूर यह सपना उठा तो जरूर यह वासना मेरे भीतर होगी। इसको पूरा करना पड़ेगा, नहीं तो यह वासना मुझे भटकायेगी। अगली जिंदगी में आना पड़ेगा, हुक्का गुड़गुडाना पड़ेगा। तो तू इंतजाम कर दे, किसी को बताना मत। लोग तो समझेंगे नहीं।

तो मथुरा तो उनका बिलकुल पागल भक्त था। उसने कहा कि ठीक। वह गया। वह चोरी-छिपे सब इंतजाम कर लाया। बहुमूल्य हीरे की अंगूठी खरीद लाया। शानदार हुक्का लखनवी! बहुमूल्य से बहुमूल्य रेशमी वस्त्र। और आश्रम के पीछे गंगा के तट पर उसने गद्दा-तकिया लगा दिया और रामकृष्ण बैठे शान से गद्दा-तकिया लगा कर अंगुली में अंगूठी डाल कर हुक्का बगल में ले कर गुड़गुड़ाना शुरू किया। वह पीछे छिपा झाड़ी के देख रहा है कि मामला अब क्या होता है! वे अंगूठी देखते जाते हैं और कहते हैं कि ‘ठीक, बिलकुल वही है। देख ले रामकृष्ण, ठीक से देख ले। और खूब मजा ले ले प्यारे, नहीं तो फिर आना पड़ेगा।’कपड़ा भी छू कर देखते हैं कि ठीक बड़ा गुदगुदा है। कहते हैं, ‘रामकृष्ण, ठीक से देख ले, नहीं तो फिर इसी कपड़े के पीछे आना पड़ेगा। भोग ले!’ हुक्का गुड़गुड़ाते हैं और कहते हैं, ‘रामकृष्ण, ठीक से गुड़गुड़ा ले!’ बस स्व–दों–तीन–चार मिनट यह चला, पांच मिनट चला होगा। फिर खिलखिला कर खड़े हो गये, अंगूठी गंगा में फेंक दी, हुक्का तोड़ कर उस पर थूका और उसके ऊपर कूदे और कपड़े फाड़ कर.। तो मथुरा घबड़ाया कि अब ये पागल हो रहे हैं। एक तो पहले ही यह पागलपन था–यह हुक्का गुडुगुड़ाना। किसी को पता चल जाये तो कोई माने भी न! अगर मैं हुक्का गुड़गुडाऊं तो लोग मान भी लें कि चलो गुड़गुड़ा रहे होंगे, इनका कुछ भरोसा नहीं। लेकिन रामकृष्ण हुक्का गुड़गुड़ायें, मथुरा भी किसी को कहेगा तो कोई मानने वाला नहीं है। और अब यह क्या हो रहा है! और उन्होंने गद्दे–तकिए भी उठा कर गंगा में फेंक दिए। नंग–धड़ंग हो गये, सब कपड़े फाड़ डाले और मथुरा को बुलाये कि खतम! अब आगे आने की कोई जरूरत न रही। देख लिया, कुछ सार नहीं है।

रामकृष्ण का कहना यह था कि जो भी भाव उठे, उसे पूरा कर ही लेना। रामकृष्ण भगोड़ापन नहीं सिखाते थे। विराग उनकी शिक्षा न थी। वे कहते थे, राग में हो तो राग को ठीक से भोग लो, लेकिन जानते रहना : राग से कभी कोई तृप्त नहीं हुआ।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

अष्‍टावक्र महागीता–प्रवचन–46–भाग–4