ओशो– यह बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा, क्योंकि गोपनीय तो हम किसी बात को रखते हैं। मौन को भी कोई गोपनीय रखता है? गोपनीय तो हम किसी विचार को रखते हैं। निर्विचार को भी कोई गोपनीय रखता है? कोई बात छिपानी हो तो हम छिपाते हैं। मौन का तो अर्थ हुआ कि छिपाने को ही कुछ नहीं है। जब छिपाने को ही कुछ नहीं है, तो उसे हम क्या छिपाएगे! यह सूत्र बहुत कठिन है और उन गहरे सूत्रों में से एक है, जिन पर धर्म की बुनियाद निर्मित होती है।गोपनीयों में, गुप्त रखने योग्य में मैं मौन हूं।
कुछ मत छिपाना, लेकिन अपने मौन को छिपाना, इसका अर्थ होता है। किसी को पता न चले कि तुम्हारे भीतर मौन निर्मित हो रहा है। किसी को पता न चले कि तुम ध्यान में उतर रहे हो। किसी को पता न चले कि तुम शांत हो रहे हो। किसी को पता न चले कि तुम भीतर शून्य हो रहे हो। क्योंकि दूसरे को बताने की इच्छा भी उसे भीतर नष्ट कर देती है।
अगर एक आदमी कहता है कि मैं मौन से रहता हूं यह कहने का जो रस है, दूसरे को बताने का जो रस है, यह जो दूसरे में रस है, इसकी वजह से मौन तो हो ही नहीं पाएगा।
एक आदमी कहता है कि मुझे तो ध्यान उपलब्ध होने लगा। लेकिन जब दूसरे से यह कहता है…। दूसरे से कहते ही हम इसलिए हैं कि दूसरा प्रभावित हो। इसलिए वही कहते हैं, जिससे दूसरा प्रभावित हो। उस सबको तो हम छिपाते हैं, जिससे दूसरा गलत प्रभावित न हो जाए। वही सब बताते हैं, जिससे दूसरा प्रभावित हो। हमारा अच्छा चेहरा हम दूसरों को दिखाते हैं, ताकि दूसरे प्रभावित हों।
लेकिन दूसरे को प्रभावित करने में जो उत्सुक है, वह ध्यान में जा ही न सकेगा। क्योंकि दूसरे को प्रभावित करने में जो रस है, उसका अर्थ है, अभी अपने से ज्यादा मूल्यवान दूसरा है। अगर मैं सोचता हूं कि फलां आदमी अगर मुझसे प्रभावित हो जाए, तो जिसको भी मैं प्रभावित करना चाहता हूं उसे मैं अपने से ज्यादा मूल्यवान मानता हूं इसीलिए प्रभावित करना चाहता हूं। वह प्रभावित हो जाए, तो मैं भी अपनी नजरों में ऊंचा उठ जाऊं। वह ज्यादा कीमती है मुझसे। अगर मुझे मान ले, तो मैं अपनी नजरों में भी ऊंचा उठ जाऊं। मेरी अपनी नजरों में उठने के लिए भी मुझे दूसरों को प्रभावित करना जरूरी है।
ध्यान की भी जब कोई बात करता है, या कोई कहता है, मैंने ईश्वर को जान लिया, जब इसकी भी कोई चर्चा करता है किसी दूसरे से और उसे प्रभावित करना चाहता है, तो उसका अर्थ हुआ कि उसने अभी ईश्वर को पाया नहीं। अभी ईश्वर को पाने के रास्ते पर भी वह नहीं है। क्योंकि उस रास्ते पर तो वे ही जाते हैं, जो दूसरे की बिलकुल चिंता ही छोड़ देते हैं, जिन्हें दूसरों का पता ही नहीं रह जाता।
सूफी फकीर हुआ बायजीद। जब वह अपने गुरु के पास गया, तो बहुत हैरान हुआ। जब वह अपने गुरु के पास था, तो उसने एक दिन देखा कि गांव का सम्राट आया और उसने आकर बायजीद के गुरु को कहा कि मुझे भी दीक्षा दे दें इस परम मौन में, जिसमें आप विराजमान हो गए हैं। तो बायजीद का गुरु अनाप—शनाप बातें बकने लगा। वह सदा चुप रहता था। वह मुश्किल से, कभी कोई पूछता, तो बहुत मुश्किल से महीनों में जवाब देता था। अनाप—शनाप बातें बोलने लगा!
वह सम्राट वापस चला गया। बायजीद ने अपने गुरु से पूछा कि ऐसा हमने कभी नहीं देखा। उसने आपको आकर कहा था, आप परम मौन में प्रतिष्ठित हो गए हैं, मुझे भी उसी तरफ ले चलें! बायजीद के गुरु ने कहा कि उसको पता न चल जाए कि मैं मौन में प्रतिष्ठित हो गया हूं इसीलिए तो अनाप—शनाप बककर उसे मैंने विदा कर दिया।
बायजीद ने पूछा, अपने मौन को आप छिपाना क्यों चाहते हैं? उसके गुरु ने कहा, इस जगत में अगर कुछ भी छिपाने योग्य है, तो मौन है। क्योंकि वह अंतरतम संपदा है। और वह इतनी नाजुक संपदा है कि जरा बाहर प्रभावित करने की इच्छा से टूट जाती है और खो जाती है।
मौन में सबसे बड़ी कठिनाई है दूसरे की मौजूदगी, जो आपके मन में सदा बनी रहती है। जब आप मौन बैठते हैं, तब भी आप मौन कहां बैठते हैं, किन्हीं दूसरों से कल्पना में बात करते रहते हैं। आदमी दो तरह की बातें करता है, वास्तविक लोगों से और काल्पनिक लोगों से। बातचीत जारी रहती है। जिनसे आप मौन में भी बात करते हैं, अगर वे कल्पना के जीव भी आपसे प्रभावित न हों, तो भी दुख हो जाता है। असली लोगों की तो हम बात छोड़ दें। आप कल्पना में किसी से बात कर रहे हों, और वह प्रभावित न हो, और कहे कि छोड़ो भी, क्या बकवास लगा रखी है! तो भी मन दुखी और खिन्न हो जाता है। सपने में भी जीतने की इच्छा बनी रहती है दूसरे को।