सदगुरु के पास बैठते ही तुम्हारे हृदय में कुछ होना शुरू हो जाएगा। आंखें गीली हो सकती हैं; तुम विवश हो सकते हो; लेकिन सदगुरु कौन, कैसे पहचानोगे? “ओशो”

 सदगुरु के पास बैठते ही तुम्हारे हृदय में कुछ होना शुरू हो जाएगा। आंखें गीली हो सकती हैं; तुम विवश हो सकते हो; लेकिन सदगुरु कौन, कैसे पहचानोगे? “ओशो”

ओशो– कह गुलाल सतगुरु बलिहारी, भवसिंधु अगम गम तरिया।। अगम्य है इस भवसागर को पार करना। लेकिन गुलाल कहते हैं: सदगुरु मिल जाए तो असंभव भी संभव हो जाता है। कोई मिल जाए तो उस पार पहुंच गया, किसी की उपस्थिति तुम्हारे लिए प्रमाण बन जाए उस पार पहुंचने की, तो असंभव भी संभव हो जाता है, फिर तुम्हारे जीवन में एक नई किरण का सूत्रपात होता है, तुम फिर वही नहीं रह जाते जो तुम हो, तुम वह होने लगते हो जो तुम्हें होना चाहिए।जिस दिन सदगुरु मिलता है, उस दिन वसंत आ जाता है।

तुम अभी कली की तरह हो, फूल हो सकते हो। तुम अभी बीज की तरह हो, वृक्ष हो सकते हो। लेकिन बीज किसी वृक्ष को देख ले तो भरोसा आए संभावना की। नहीं तो आदमी अपने को उतना ही मान लेता है, जितना है। उसे ज्यादा हो सकता है, इसकी कल्पना ही नहीं उठती।

सदगुरु कौन, कैसे पहचानोगे? यह सवाल पुराना और नित नया, नित नूतन: कैसे पहचानोगे? गुरु तो बहुत हैं, गुरुडमें बहुत हैं, सदगुरु कौन? गुरुओं की इस भीड़-भाड़ में सदगुरु को कैसे पहचानोगे?

कुछ सूत्र सहयोगी हो सकते हैं।पहली बात, जो सदगुरु नहीं है, वह तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करेगा। जो सदगुरु है, वह तुम्हारी अपेक्षाओं को धूल-धूसरित कर देगा। जो सदगुरु नहीं है, वह हमेशा तुम्हारी मान्यताओं का समर्थन करेगा। और जो सदगुरु है, वह तुम्हारी मान्यताओं का खंडन करेगा, क्योंकि मान्यताओं के सहारे ही तुम्हारा मन जी रहा है। मान्यताएं गिर जाएं तो मन गिर जाए..और मन गिर जाए तो चैतन्य जग जाए। जो गुरु है और सदगुरु नहीं, वह परंपरावादी होगा, पुराणवादी होगा, लकीर का फकीर होगा; वह तुम्हारे अतीत को ही पीटेगा, अतीत के ही गुणगान गाएगा, क्योंकि अतीत में ही तुम्हारा अहंकार है। जितना महान तुम्हारा अतीत, उतना तुम्हारा बड़ा अहंकार। जो सदगुरु है, वह तुम्हारे अतीत को छिन्न-भिन्न कर देगा। वह कहेगा: कोई अतीत नहीं है, जो बीता सो बीता, जो गया सो गया, और जो अभी नहीं आया है, नहीं आया है।

सदगुरु तुम्हें वर्तमान में ठहराने के सारे उपाय करेगा। उन्हीं उपायों का नाम प्रार्थना है, ध्यान है। प्रार्थना का अर्थ परमात्मा के साथ हाथ जोड़ कर कुछ बातचीत करना नहीं है। प्रार्थना का अर्थ है: प्रेम में झुक जाना; इस अस्तित्व के प्रेम में झुक जाना, भीग जाना, आद्र्र हो जाना। और ध्यान का अर्थ कोई राम-राम जपना नहीं है। ध्यान का अर्थ है: शून्य हो जाना, मिट जाना। प्रेम और ध्यान का अंतिम अर्थ एक ही है: मिट जाना, शून्य हो जाना।

सदगुरु तुम्हें मिटने की कला सिखाएगा; तुम्हें शून्य होने की कला सिखाएगा। साधारण गुरु, मिथ्या गुरु तुम्हें भरेगा जानकारियों से और सदगुरु तुम्हारी जानकारियों को छीन लेगा। सदगुरु तुम्हें फिर आश्चर्य से भर देगा, क्योंकि ज्ञान को हटा लेगा। मिथ्या गुरु के पास किताबों की गंध होगी। मिथ्या गुरु तो ऐसा है जैसे सूखा फूल। किताबों में दबाकर रख देते हैं न; सूखा फूल; न गंध, न जीवन। किताबों में दबा हुआ फूल। बस, फूल का आभास मात्र। समझो कि फूल की तस्वीर.. फूल भी नहीं। सदगुरु खिला हुआ फूल है। अभी उसकी जड़ें भूमि में हैं। अभी हरे पत्तों पर उसका नृत्य चल रहा है। सदगुरु जीवंत घटना है। वह किन्हीं सहारों पर खड़ा नहीं होता। वेद न हों, कुरान न हो, बाइबिल न हो, कोई अंतर नहीं पड़ता, सदगुरु का कुछ भी नहीं छिनेगा। लेकिन मिथ्या गुरु का सब छिन जाएगा। उसके तो प्राण वहीं हैं। वह तो तोतों की तरह रट रहा है। तोतों में भी कहते हैं थोड़ी ज्यादा अकल होती है। पंडितों से तो थोड़ी ज्यादा होती है।

तोतों में भी थोड़ी ज्यादा अक्ल होती है। पंडित तो बिल्कुल तोते हैं; पोपट! पंडित के भीतर तुम्हें कोई प्रमाण नहीं मिलेगा, उसका अस्तित्व प्रमाण नहीं देगा, उसके आस-पास आभा नहीं होगी, उसके आस-पास गंध नहीं होगी, उसके आस-पास सत्य का कोई आभास भी नहीं होगा। हां, यंत्रवत दोहराएगा वह। अगर तुम खुली आंख से देखते रहो, तो बहुत अड़चन न आएगी मिथ्या को सदगुरु से अलग कर लेने में। और सदगुरु के पास बैठते ही तुम्हारे हृदय में कुछ होना शुरू हो जाएगा। आंखें गीली हो सकती हैं; तुम विवश हो सकते हो; …

…कल मीरा यहां बैठे-बैठे रोने लगी। उसने अपने को बहुत रोका, मैं देख रहा था, वह अपने को रोकने की हर चेष्टा कर रही थी, नहीं रोक पाई। समझदार है, तो उसे बड़ी अड़चन भी हो रही थी कि कोई क्या कहेगा! और यह भी उसे पता था कि सामने ही बैठ कर मेरे बोलने में बाधा डाल रही है। फिर बाद में उसने पत्र लिखा कि मुझे क्षमा करना, मैं अवश हो गई! रोक कर भी न रोक सकी! बस हो ही गया! जितनी चेष्टा की, उतनी ही मुश्किल हो गई।

सदगुरु के पास तुम्हारे हृदय के तंतु अनायास नाचने लगते हैं। वहां से तुम ज्ञान लेकर नहीं लौटते, एक सुरभि लेकर लौटते हो।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-03)