लोग समझते हैं, उपवास भीतर है और भोजन बाहर है, लेकिन बिना भोजन के उपवास नहीं हो सकता “ओशो”
ओशो- यह बड़े मजे की बात है। लोग समझते हैं, उपवास भीतर है और भोजन बाहर है। लेकिन बिना भोजन के उपवास नहीं हो सकता। और उलटी बात भी सच है, बिना उपवास के भोजन नहीं हो सकता। इसलिए हर दो भोजन के बीच में आठ घंटे का उपवास करना पड़ता है। वह जो आठ घंटे का उपवास है, वह फिर भोजन की तैयारी पैदा कर देता है।
इसलिए अगर तुम दिनभर खाते रहोगे, तो भूख भी मर जाएगी, भोजन का मजा भी चला जाएगा। भोजन का मजा भूख में है। यह तो बड़ी उलटी बात हुई! भोजन का मजा भूख में है। जितनी प्रगाढ़ भूख लगती है, उतना ही भोजन का रस आता है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि ध्यान का रस विचार में है। तुमने जितना विचार कर लिया होता, उतनी ही ध्यान की आकांक्षा पैदा होती। इसका तो अर्थ हुआ कि ब्रह्मचर्य की जड़ें कामवासना में हैं; कि तुमने जितना काम भोग लिया होता, उतने ब्रह्मचर्य के फूल तुम्हारे जीवन में खिलते।
ये मेरी बातें तुम्हें उलटी लगेंगी; क्योंकि जिन्होंने तुम्हें समझाया है अब तक, उन्होंने खंड करके समझाया है। उन्होंने कहा, कामवासना ब्रह्मचर्य के विपरीत है। उन्होंने कहा, संसार संन्यास के विपरीत है। उन्होंने हर चीज के बीच द्वंद्व और संघर्ष और कलह पैदा कर दी है। ये जो कलह पैदा करने वाले लोग हैं, इनको तुम गुरु समझ रहे हो। यही तुम्हें भटकाए हैं।
मैं चाहता हूं कि तुम्हारे जीवन में अकलह हो जाए, एक संवाद छिड़ जाए, संगीत बजने लगे। अलग-अलग स्वर न रह जाएं, सब एक संगीत में समवेत हो जाएं। तुम्हारे भीतर एक कोरस का जन्म हो, जिसमें सभी जीवन की तरंगें संयुक्त हों, बाहर और भीतर मिले, शरीर और आत्मा मिले, परमात्मा और प्रकृति मिले।
इसलिए कबीर कह सके कि वे ही विरले योगी हैं, जो धरनी महारस चाखा। विरले योगी वे ही हैं। परमात्मा का जिन्होंने अकेले रस चखा, वे कोई बहुत विरले योगी नहीं है। अधूरे हैं, आधे हैं। पूरे तो वे ही हैं, जे धरनी महारस चाखा। जिन्होंने धरती के महारस को भी चखा। परमात्मा को तो जाना ही, पदार्थ को भी जाना। भीतर तो मुड़े ही, बाहर के विपरीत नहीं; बाहर के सहारे मुड़े। भीतर गए और बाहर की नाव पर गए। उनको कबीर ने कहा विरले योगी।
उन्हीं विरले योगियों से संसार उस शांति को उपलब्ध होगा, जो पूरब जानता है; और उस सुख को उपलब्ध होगा, जो पश्चिम जानता है। और जहां सुख और शांति के पलड़े बराबर हो जाते हैं, वहीं जीवन में संयम पैदा होता है। संयम यानी संतुलन। पूरब भी असंयमी है और पश्चिम भी असंयमी है। इसलिए दोनों दुखी हैं। असंयम दुख है। संयम महासुख है।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३