दुर्गा की सिर्फ पूजा करने की बजाय स्त्रियां उसके सभी पहलुओं को जीना शुरु करें “ओशो”

 दुर्गा की सिर्फ पूजा करने की बजाय स्त्रियां उसके सभी पहलुओं को जीना शुरु करें “ओशो”

ओशो- स्त्री तत्व की जो परम अभिव्यक्ति है उसी के नौ पहलू दुर्गा के रूप में बनाए गए हैं। नवरात्रि अर्थात् नौ दिनों तक उसका एक-एक रूप पूजा जाता है। कभी वह ब्रह्मचारिणी है तो कभी स्कंदमाता, कभी महागौरी कभी कालरात्रि। भारतीय समाज पुरुष प्रधान है, सारे नैतिक नियम और धर्म पुरुषों ने ही बनाए हैं। लेकिन आश्चर्य, जिस समाज में मानवीय स्त्री का और स्त्रैण तत्व का कोई सम्मान नहीं है उस समाज में स्त्री के व्यक्तित्व के नौ पहलुओं को गौरवान्वित कर पूजने का क्या मतलब होगा? वस्तुत: हर स्त्री को यह प्रश्न पूछना चाहिए। देवी के सभी रूप स्त्री की संभावना के ही प्रतीक हैं। अगर सामान्य स्त्री को अवसर मिले तो वह भी विकसित हो सकती है। देवी की अधिकांश प्रतिमा किसी जानवर पर सवार है, अधिकतर शेर पर। लेकिन एक-एक बार बैल और गधे पर सवार हैे। इन प्रतीकों का क्या अर्थ है? जरूर गहरा आशय होना चाहिए जिसे डीकोड करना जरूरी है। पूर्वज इन चित्रों के द्वारा क्या कहना चाहते थे? क्या कोई सामान्य स्त्री पूजने योग्य नहीं हो सकती? वास्तविक सृजन और पालन-पोषण वही करती है।
आज के संदर्भ में स्त्री का एक और रूप शक्तिवान रूपों में सम्मिलित होना चाहिए। मीटू (मैं भी) वाले आंदोलन में शामिल होकर वह आवाज उठा रही है। मेरे लिए यह दुर्गा का ही एक रूप है। अब स्त्री इतनी जाग्रत और सशक्त हो गई है कि वह देवी के सभी रूपों से प्रेरणा ले सकती है। आधुनिक स्त्री अपने शोषण होने के खिलाफ न्याय मांग रही है। दुर्गा की सिर्फ पूजा करने की बजाय स्त्रियां उसके सभी पहलुओं को जीना शुरु करें। मीटू की मांग करने वाली स्त्री तो हमारे बीच में जी रही है। घर-घर में पायी जाती है। सड़कों पर, फिल्मों के सैट पर, कार्पोरेट ऑफिसेस में मिलती है। क्या उसके लिए हमारी संस्कृति में, धर्म में कोई जगह है?
स्त्री तत्व की जो परम अभिव्यक्ति है उसी के नौ पहलू दुर्गा के रूप में बनाए गए हैं। नवरात्रि अर्थात् नौ दिनों तक उसका एक-एक रूप पूजा जाता है। कभी वह ब्रह्मचारिणी है तो कभी स्कंदमाता, कभी महागौरी कभी कालरात्रि। भारतीय समाज पुरुष प्रधान है, सारे नैतिक नियम और धर्म पुरुषों ने ही बनाए हैं। लेकिन आश्चर्य, जिस समाज में मानवीय स्त्री का और स्त्रैण तत्व का कोई सम्मान नहीं है उस समाज में स्त्री के व्यक्तित्व के नौ पहलुओं को गौरवान्वित कर पूजने का क्या मतलब होगा? वस्तुत: हर स्त्री को यह प्रश्न पूछना चाहिए। देवी के सभी रूप स्त्री की संभावना के ही प्रतीक हैं। अगर सामान्य स्त्री को अवसर मिले तो वह भी विकसित हो सकती है। देवी की अधिकांश प्रतिमा किसी जानवर पर सवार है, अधिकतर शेर पर। लेकिन एक-एक बार बैल और गधे पर सवार हैे। इन प्रतीकों का क्या अर्थ है? जरूर गहरा आशय होना चाहिए जिसे डीकोड करना जरूरी है। पूर्वज इन चित्रों के द्वारा क्या कहना चाहते थे? क्या कोई सामान्य स्त्री पूजने योग्य नहीं हो सकती? वास्तविक सृजन और पालन-पोषण वही करती है।

आज के संदर्भ में स्त्री का एक और रूप शक्तिवान रूपों में सम्मिलित होना चाहिए। # मीटू (मैं भी) वाले आंदोलन में शामिल होकर वह आवाज उठा रही है। मेरे लिए यह दुर्गा का ही एक रूप है। अब स्त्री इतनी जाग्रत और सशक्त हो गई है कि वह देवी के सभी रूपों से प्रेरणा ले सकती है। आधुनिक स्त्री अपने शोषण होने के खिलाफ न्याय मांग रही है। दुर्गा की सिर्फ पूजा करने की बजाय स्त्रियां उसके सभी पहलुओं को जीना शुरु करें। # मीटू की मांग करने वाली स्त्री तो हमारे बीच में जी रही है। घर-घर में पायी जाती है। सड़कों पर, फिल्मों के सैट पर, कार्पोरेट ऑफिसेस में मिलती है। क्या उसके लिए हमारी संस्कृति में, धर्म में कोई जगह है?

हिंदुओं ने एक बड़ी अनूठी कल्पना की है। हिंदुओं से ज्यादा कल्पनाशील, काव्यात्मक कोई जाति पृथ्वी पर नहीं है। उनके काव्य बड़े गहरे हैं। तुमने कभी देखी #काली की प्रतिमा? वह मां भी है और मौत भी। काल मृत्यु का नाम है, इसलिए काली; और मां भी है, इसलिए नारी। सुंदर है, मां जैसी सुंदर है। मां जैसा सुंदर तो फिर कोई भी नहीं हो सकता। अपनी तो मां कुरूप भी हो तो भी सुंदर मालूम होती है। मां के संबंध में तो कोई #सौंदर्य का विचार ही नहीं करता। #मां तो सुंदर होती ही है। क्योंकि अपनी मां को कुरूप देखने का अर्थ तो अपने को ही कुरूप देखना होगा, क्योंकि तुम उसी के विस्तार हो। तो काली सुंदर है, सुंदरतम है। लेकिन फिर भी गले में नरमुंडों की माला है! सुंदर है, पर काली है–काल, मौत!

पश्चिम के विचारक जब इस प्रतीक पर सोचते हैं, तो वे बड़े चकित होते हैं कि स्त्री को इतना #विकराल क्यों चित्रित किया है! और तुम उसे मां भी कहते हो! और इतना विकराल!

इतना विकराल इसलिए कि जिससे जन्म मिला है, उसी से मृत्यु की शुरुआत भी हुई। विकराल इसलिए कि जन्म के साथ ही मौत भी आ गई है। तो मां ने जन्म ही नहीं दिया, मौत भी दी है। तो एक तरफ वह सुंदर है मां की तरह, स्रोत की तरह। और एक तरफ अंत की तरह, काल की तरह अत्यंत काली है। गले में नरमुंडों की माला है, हाथ में कटा हुआ सिर है, खून टपक रहा है, पैरों के नीचे अपने ही पति को दबाए खड़ी है।

स्त्री के ये दो रूप–कि वह #जीवन भी है और #मृत्यु भी–बड़ा गहरा प्रतीक है। क्योंकि जहां से जीवन आएगा, वहीं से मृत्यु भी आएगी; वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और जैसा हिंदुओं ने इस बात को पहचाना, पृथ्वी पर कोई भी नहीं पहचान सका।