सार्त्र, कामू या उनामुनो या जेस्पर या हाइडेगर, पश्चिम में जो भी अस्तित्ववादी विचारक हैं, वे ठीक अर्जुन की मनःस्थिति में हैं, इसलिए सावधान रहना, पश्चिम में कृष्ण पैदा हो सकते हैं, क्योंकि जहां अर्जुन की मनःस्थिति हो, वहां कृष्ण के पैदा होने की संभावना हो जाती है

 सार्त्र, कामू या उनामुनो या जेस्पर या हाइडेगर, पश्चिम में जो भी अस्तित्ववादी विचारक हैं, वे ठीक अर्जुन की मनःस्थिति में हैं, इसलिए सावधान रहना, पश्चिम में कृष्ण पैदा हो सकते हैं, क्योंकि जहां अर्जुन की मनःस्थिति हो, वहां कृष्ण के पैदा होने की संभावना हो जाती है

प्रश्न: भगवान, आपने धनंजय को सिंबल आफ ह्यूमन एट्रिब्यूट, मानवीय गुणों का प्रतीक बताया है। और सार्त्र के कथन से, ही इज़ कंडेम्ड टु बी एंग्जाइटी रिडेन। तो स्वजनों की हत्या के खयाल से धनंजय का कंप जाना क्या मानवीय नहीं था? युद्धनिवृत्ति का उसका विचार मोहवशात भी क्या प्रकृति-संगत नहीं था? शेक्सपियर के हेमलेट की तरह अर्जुन का विषाद भी, टु किल आर नाट टु किल, मारना या न मारना प्रकार का था। तिलक ने गीता-रहस्य में अर्जुन की विषाद दशा का साम्य हेमलेट की मनःस्थिति में ढूंढ़ निकाला, क्या यह उचित है?
ओशो- सार्त्र जो कहता है, वह अर्जुन लिए बिलकुल ठीक ही कहता है। अर्जुन की भी संकट-अवस्था एक्झिस्टेंशियल ही थी। सार्त्र, कामू या उनामुनो या जेस्पर या हाइडेगर, पश्चिम में जो भी अस्तित्ववादी विचारक हैं, वे ठीक अर्जुन की मनःस्थिति में हैं। इसलिए सावधान रहना, पश्चिम में कृष्ण पैदा हो सकते हैं। क्योंकि जहां अर्जुन की मनःस्थिति हो, वहां कृष्ण के पैदा होने की संभावना हो जाती है। पूरा पश्चिम एक्झिस्टेंशियल क्राइसिस में है। पूरे पश्चिम के सामने मनुष्य की चिंतातुरता एकमात्र सत्य होकर खड़ी हो गई है। क्या करें और क्या न करें? ईदर ऑर, यह या वह? क्या चुनें, क्या न चुनें? कौन-सा मूल्य चुनने योग्य है, कौन-सा मूल्य चुनने योग्य नहीं है–सब संदिग्ध हो गया है।
और ध्यान रहे कि पश्चिम में भी यह जो अस्तित्ववादी चिंतन पैदा हुआ, यह दो युद्धों के बीच में पैदा हुआ है। सार्त्र या कामू या उनामुनो पिछले दो महायुद्धों की परिणति हैं। पिछले दो महायुद्धों ने पश्चिम के चित्त में भी वह स्थिति खड़ी कर दी है, जो अर्जुन के चित्त में महाभारत के सामने खड़ी हो गई थी। विगत दो युद्धों ने पश्चिम के सारे मूल्य डगमगा दिए हैं। और अब सवाल यह है कि लड़ना कि नहीं लड़ना? लड़ने से क्या होगा? और ठीक स्थिति वैसी है कि अपने सब मर जाएंगे, तो लड़ने का क्या अर्थ है! और जब युद्ध की इतनी विकट स्थिति खड़ी हो जाए, तो शांति के समय में बनाए गए सब नियम संदिग्ध हो जाएं तो आश्चर्य नहीं है। यह ठीक सवाल उठाया है।
सार्त्र ठीक अर्जुन की मनःस्थिति में है। खतरा दूसरा है। सार्त्र की मनःस्थिति से खतरा नहीं है। सार्त्र अर्जुन की मनःस्थिति में है, लेकिन समझ रहा है, कृष्ण की मनःस्थिति में है। खतरा वहां है। है अर्जुन की मनःस्थिति में। जिज्ञासा करे, ठीक है। प्रश्न पूछे, ठीक है। वह उत्तर दे रहा है। खतरा वहां है। खतरा यहां है कि सार्त्र जिज्ञासा नहीं कर रहा है। सार्त्र पूछ नहीं रहा कि क्या है ठीक। सार्त्र उत्तर दे रहा है कि कुछ भी ठीक नहीं है। सार्त्र उत्तर दे रहा है कि कुछ भी ठीक नहीं है, कोई मूल्य नहीं है। अस्तित्व अर्थहीन है, मीनिंगलेस है।
यह जो उत्तर दे रहा है कि ईश्वर नहीं है जगत में, आत्मा नहीं है जगत में, मृत्यु के बाद बचना नहीं है जगत में, सारा का सारा अस्तित्व एक अव्यवस्था है, एक अनार्की है, एक संयोग-जन्य घटना है, इसमें कोई सार नहीं है कहीं भी। यह उत्तर दे रहा है। यहां खतरा है।
अर्जुन भी उत्तर दे सकता था। लेकिन अर्जुन सिर्फ जिज्ञासा कर रहा है। अगर अर्जुन उत्तर दे, तो खतरे पैदा होंगे। लेकिन अर्जुन जिज्ञासा कर रहा है। और मैं मानता हूं कि जिसे दिखाई पड़ता हो–जैसा सार्त्र को दिखाई पड़ता है कि कोई मूल्य नहीं है, एक वैल्युलेसनेस है–जिसे दिखाई पड़ता है कि कोई अर्थ नहीं, कोई प्रयोजन नहीं। अगर सच में ही ऐसा दिखाई पड़ता है, तब तो सार्त्र को कुछ कहने का भी अर्थ नहीं है। चुप हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में मौन ही सार्थक मालूम पड़ सकता है। व्यर्थ है सारी बात।
नहीं, लेकिन सार्त्र मौन नहीं है। आतुर है कहने को, समझाने को, जो कह रहा है उससे दूसरों को राजी करने को। तब डर होता है। तब डर यह होता है कि सार्त्र भी भीतर असंदिग्ध नहीं है कि जो कह रहा है वह ठीक है। शायद सार्त्र दूसरों को समझाकर दूसरों के चेहरे पर यह देखने को उत्सुक है कि कहीं उनको अगर ठीक लगती हो यह बात, तो ठीक होगी। मैं भी फिर ठीक मान लूं।
सार्त्र जिज्ञासा करे, वहां तक ठीक है। लेकिन पश्चिम में एक्झिस्टेंशियलिस्ट विचारक जिज्ञासा को उत्तर बना रहे हैं। और जब जिज्ञासा उत्तर बनती है, और जब शिष्य गुरु हो जाता है, और जब पूछना ही बताना बन जाता है, तब एक क्राइसिस आफ वैल्यूज पैदा होती है, जो कि पश्चिम में पैदा हुई है। सब अस्तव्यस्त हो गया है। सब अस्तव्यस्त हो गया है। उस अस्तव्यस्तता में कहीं कोई राह नहीं दिखाई पड़ती। नहीं दिखाई पड़ती, इसलिए नहीं कि राह नहीं है, राह तो सदा है। लेकिन अगर हम यह मान ही लें कि राह है ही नहीं, यही हमारा उत्तर बन जाए, तो फिर राह दिखाई पड़नी असंभव है।
अर्जुन यह नहीं मानता। अर्जुन बड़ी जिज्ञासा कर रहा है कि राह होगी। मैं खोजता हूं, मैं पूछता हूं, आप मुझे बताएं। वह कृष्ण को कह रहा है, आप मुझे बताएं, आप मुझे समझाएं। मैं अज्ञानी हूं, मुझे कुछ पता नहीं है। विनम्र है। अर्जुन का अज्ञान विनम्र है, सार्त्र का अज्ञान विनम्र नहीं है। सार्त्र का अज्ञान बहुत असर्टिव है। खतरा है। और जब अज्ञान असर्टिव होता है, जब अज्ञान मुखर होता है, तो जितने खतरे होते हैं, उतने खतरे और किसी बात से नहीं होते। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि अज्ञान मुखर होता है।
अर्जुन पूछ रहा है। वह कहता है, मुझे पता नहीं है। मैं संदेह में पड़ गया हूं। मैं डूबा जा रहा हूं संकट में, मुझे कोई मार्ग दें। लेकिन मार्ग हो सकता है, इसकी उसकी खोज जारी है।
मैं मानता हूं कि अर्जुन सार्त्र से ज्यादा साहसी है। क्योंकि इतनी गहन निराशा में भी मार्ग की खोज बड़े साहस की बात है। सार्त्र उतना साहसी नहीं है। उसके वक्तव्य बहुत साहसी मालूम पड़ते हैं, उतना साहसी नहीं है। असल में कई बार ऐसा होता है कि अंधेरी गली में आदमी निकलता है, तो सीटी बजाता हुआ निकलता है। सीटी बड़ी साहसी मालूम पड़ती है आस-पास सोए हुए लोगों को। लेकिन सीटी बजाने से साहस पता नहीं चलता, उससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि आदमी डर रहा है। वह सीटी साहस का सबूत नहीं होती। वह सिर्फ भय को छिपाने की चेष्टा होती है।
वह जो केऑस, जो अराजकता पश्चिम के सामने दो महायुद्धों ने प्रकट कर दी है, वह जो नीचे से एक बवंडर प्रकट हुआ है और भूमि फट गई है, और एक ज्वालामुखी ने मुंह बा दिया है पश्चिम के सामने, उस ज्वालामुखी को झुठलाने की कोशिश चल रही है।
है ही नहीं जीवन में कोई अर्थ, इसलिए अनर्थ से डरने की जरूरत क्या है! है ही नहीं कोई मूल्य, इसलिए मूल्य की खोज की चिंता भी क्या करनी है! है ही नहीं कोई परमात्मा, तो प्रार्थना करने से क्या फायदा है! है ही नहीं कोई आशा, इसलिए निराशा में भी चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है!
निराशा में भी निश्चिंतता खोजने की चेष्टा, सिर्फ इस बात की सूचक है कि हृदय बहुत कमजोर है और साहस कम है। असल में आशा जब तीव्र निराशा में पड़ती है, तभी पता चलता है कि है या नहीं। और जब गहन अंधकार में ज्योति को खोजने की चेष्टा चलती है, तभी पता चलता है कि प्रकाश की कोई आकांक्षा, गहरा साहस, गहरी लगन और गहरे संकल्प से जुड़ी है या नहीं जुड़ी है।
पश्चिम की सार्त्रवादी चिंतना निराशा को स्वीकार कर लेने की है। निराशा है। इससे पश्चिम उबरेगा नहीं। इसलिए एक्झिस्टेंशियलिज्म और उस तरह के विचारक सिर्फ एक फैशन से ज्यादा नहीं हैं। और फैशन मरनी शुरू हो गई है, फैशन मर रही है। अब अस्तित्ववाद कोई बहुत जीवित धारणा नहीं है। बच्चे पश्चिम के उसको भी इनकार कर रहे हैं, वह भी ओल्ड फैशन हो गई है। छोड़ो यह बकवास भी!
लेकिन सार्त्र की पीढ़ी ने जो निराशा दी है, उसका दुष्परिणाम आने वाली पीढ़ी पर दिखाई पड़ रहा है। वह पीढ़ी कहती है कि ठीक है, हम सड़क पर नंगे नाचेंगे; क्योंकि तुम्हीं ने तो कहा कि कोई अर्थ नहीं है, तो फिर कपड़े पहनने में ही कौन-सा अर्थ है! तो हम फिर किसी भी तरह के काम-संबंध निर्मित करेंगे; क्योंकि तुम्हीं ने तो कहा है कि कोई अर्थ नहीं है, तो परिवार का भी क्या अर्थ है! फिर हम किसी को आदर नहीं देंगे; क्योंकि तुम्हीं ने तो कहा है कि जब ईश्वर ही नहीं है, तो आदर का क्या अर्थ है! और हम कल की चिंता न करेंगे।
आज अमेरिका और यूरोप की युनिवर्सिटीज लड़के खाली करके भाग रहे हैं। उनसे कहते हैं उनके मां-बाप कि पढ़ो, तो वे कहते हैं, कल का क्या भरोसा? तुम्हीं ने तो कहा है कि सब अनिश्चित है, तो पढ़-लिख कर भी क्या होगा? और वे लड़के पूछते हैं कि हिरोशिमा में भी लड़के पढ़ रहे थे कालेज में, फिर एटम गिर गया और सब समाप्त हो गया। हम भी पढ़ेंगे, तुम एटम तैयार कर रहे हो, किस दिन गिरा दोगे, कुछ पता नहीं है। तो हमें जी लेने दो, जो दो-चार क्षण हमें मिले हैं, हमें जी लेने दो।
तो पश्चिम में जो जीवन का एक विस्तार है टाइम में, समय में जो एक जीवन की यात्रा है, वह एकदम खंडित हो गई है। क्षण पर टिक गया है; अभी जो है, कर लो; अगले क्षण का कोई भरोसा नहीं है। और अगले क्षण के भरोसे को करोगे भी क्या? अंततः तो मृत्यु ही है; अगला क्षण मृत्यु है। टाइम जो है, वह डेथ का पर्यायवाची हो गया पश्चिम में; समय और मृत्यु एक ही अर्थ के हो गए। अभी जो है, है; और कोई मूल्य नहीं है।
अभी एक व्यक्ति ने कई हत्याएं कीं। और जब अदालत ने उससे पूछा तो उसने कहा, क्या हर्ज है! जब सभी को मर ही जाना है, तो मैंने मरने में सहायता की है। और वे तो मर ही जाते; उनको मारने से मुझे थोड़ा आनंद मिला है! उसके ले लेने में हर्ज क्या है? जब कोई मूल्य ही नहीं है, तो ठीक है।
सार्त्र की पीढ़ी पश्चिम को एक खोखलेपन से, एक हालोनेस से भर गई। क्योंकि उसके पास उत्तर नहीं थे, सिर्फ प्रश्न थे। और उसने प्रश्नों को ही उत्तर बता दिया।
अगर अर्जुन जीत जाए, तो इस मुल्क में भी हालोनेस पैदा हो जाए। अर्जुन नहीं जीता और कृष्ण जीत गए। वह एक संघर्ष था बड़ा अर्जुन और कृष्ण के बीच। अगर अर्जुन को शक सवार हो जाए, और धुन सवार हो जाए गुरु होने की, और वह अपनी जिज्ञासाओं को उत्तर बना दे, और अपने प्रश्नों को उत्तर बना दे, और अपने अज्ञान को ज्ञान मान ले, तो इस मुल्क में भी वही स्थिति पैदा हो जाती, जो पश्चिम में अस्तित्ववादी चिंतन के कारण पैदा हुई है। स्थिति वही है, लेकिन पश्चिम के पास अभी भी कृष्ण नहीं हैं। लेकिन इस सिचुएशन में कृष्ण पश्चिम में पैदा हो सकते हैं।
और इसलिए बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि कृष्ण- कांशसनेस जैसे आंदोलन पश्चिम के मन को पकड़ रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं है कि पश्चिम की सड़कों पर लड़के और लड़कियां ढोल पीटकर और कृष्ण का भजन कर रहे हैं। यह कोई आश्चर्य नहीं है। यह आकस्मिक नहीं है। इस जगत में आकस्मिक कुछ भी नहीं होता। इस जगत में फूल भी खिलता है, तो लंबे कारण होते हैं। अगर लंदन की सड़क पर कोई हरेकृष्ण का भजन ढोल पर पीटता हुआ घूमता है, तो यह आकस्मिक नहीं है। यह पश्चिम के चित्त में कहीं कोई गहरी पीड़ा है।
अर्जुन तो मौजूद हो गया, कृष्ण कहां हैं? प्रश्न तो खड़ा हो गया, उत्तर कहां है? उत्तर की तलाश है; उत्तर की तलाश पैदा हुई है। इसलिए ठीक सवाल था यह।
लेकिन मैं अर्जुन को मनुष्य का प्रतीक कहता हूं। और अर्जुन को जो ममत्व पकड़ा, वह भी मनुष्य की मनुष्यता है। लेकिन नीत्शे का एक वचन आपसे कहूं। नीत्शे ने कहा है, अभागा होगा वह दिन, जिस दिन मनुष्य मनुष्य से पार होने की आकांक्षा छोड़ देगा। अभागा होगा वह दिन, जिस दिन मनुष्य की प्रत्यंचा पर मनुष्य को पार करने वाला तीर न खिंचेगा। अभागा होगा वह दिन, जिस दिन मनुष्य मनुष्य होने से तृप्त हो जाएगा। मनुष्य मंजिल नहीं है, पड़ाव है। उसे पार होना ही है। अर्जुन मंजिल नहीं है, पड़ाव है।
स्वाभाविक है आदमी के लिए, अपनों को चाहे। स्वाभाविक है आदमी के लिए, अपनों को मारने से डरे। स्वाभाविक है आदमी के लिए, ईदर-ऑर पकड़े–यह या वह, करूं या न करूं–चिंता आए। लेकिन जो मनुष्य के लिए स्वाभाविक है, वह जीवन का अंत नहीं है। और मनुष्य के लिए जो स्वाभाविक है, वह सिर्फ मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। और उस स्वभाव में चिंता और पीड़ा और तनाव भी जुड़े हैं; अशांति, दुख और विक्षिप्तता भी जुड़ी है। ….11 क्रमशः

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३