मनुष्य के सामने द्वंद्वात्मक दशा बार-बार आती रहती है, तो इस द्वंद्व भरी दशा को पार करने के लिए मूल आधार कौन-सा होना चाहिए? और द्वंद्व भरी दशा को हम विकासोन्मुख किस तरह बना सकें?

 मनुष्य के सामने द्वंद्वात्मक दशा बार-बार आती रहती है, तो इस द्वंद्व भरी दशा को पार करने के लिए मूल आधार कौन-सा होना चाहिए? और द्वंद्व भरी दशा को हम विकासोन्मुख किस तरह बना सकें?

प्रश्न: भगवान, कृपया यह बताइए कि मनुष्य के सामने द्वंद्वात्मक दशा बार-बार आती रहती है, तो इस द्वंद्व भरी दशा को पार करने के लिए मूल आधार कौन-सा होना चाहिए? और द्वंद्व भरी दशा को हम विकासोन्मुख किस तरह बना सकें? और यह जो द्वंद्व दशा होती है, उसमें से हमने जो अपना संकल्प कर लिया या निश्चय कर लिया, तो उसमें मूल चीज कौन सी होती है हमारे सामने?
ओशो- अर्जुन के लिए भी यही सवाल है। इस सवाल को आमतौर से आदमी जैसा हल करता है, वैसा ही अर्जुन भी करना चाहता है। द्वंद्व मनुष्य का स्वभाव है–मनुष्य का, आत्मा का नहीं, शरीर का नहीं–मनुष्य का द्वंद्व स्वभाव है। द्वंद्व को अगर जल्दबाजी से हल करने की कोशिश की, तो पशु की तरफ वापस लौट जाना रास्ता है। शीघ्रता की, तो पीछे लौट जाएंगे। वह परिचित रास्ता है; वहां वापस जाया जा सकता है। द्वंद्व से गुजरना ही तपश्चर्या है; धैर्य से द्वंद्व को झेलना ही तपश्चर्या है। और द्वंद्व को झेलकर ही व्यक्ति द्वंद्व के पार होता है। इसलिए कोई जल्दी से निश्चय कर ले, सिर्फ द्वंद्व को मिटाने के लिए, तो उसका निश्चय काम का नहीं है, वह नीचे गिर जाएगा; वह वापस गिर रहा है।
पशु बहुत निश्चयात्मक है; पशुओं में डाउट नहीं है। बड़े निश्चय में जी रहे हैं; बड़े विश्वासी हैं; बड़े आस्तिक मालूम होते हैं! पर उनकी आस्तिकता आस्तिकता नहीं है। क्योंकि जिसने नास्तिकता नहीं जानी, उसकी आस्तिकता का अर्थ कितना है? और जिसने नहीं कहने का कष्ट नहीं जाना, वह हां कहने के आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता है। और जिसने संदेह नहीं किया, उसकी श्रद्धा दो कौड़ी की है। लेकिन जिसने संदेह किया और जो संदेह को जीया और संदेह के पार हुआ, उसकी श्रद्धा का कुछ बल है, उसकी श्रद्धा की कोई प्रामाणिकता है।
तो एक तो रास्ता यह है कि जल्दी कोई निश्चय कर लें। और निश्चय करने के बहुत रास्ते आदमी पकड़ लेता है। किसी शास्त्र को पकड़ ले, तो निश्चय हो जाएगा। शास्त्र निश्चय की भाषा में बोल देगा कि ऐसा-ऐसा करो और विश्वास करो। जिसने शास्त्र पकड़कर निश्चय किया, उस आदमी ने अपने मनुष्य होने से इनकार कर दिया। उसे एक अवसर मिला था विकास का, उसने खो दिया। गुरु को पकड़ लो! जिसने गुरु को पकड़ लिया, उसने अवसर खो दिया। एक संकट था, जिसमें बेसहारा गुजरने के लिए परमात्मा ने उसे छोड़ा था, उसने उस संकट से बचाव कर लिया। वह संकट से बिना गुजरे रह गया। और आग में गुजरता, तो सोना निखरता। वह आग में गुजरा ही नहीं, वह गुरु की आड़ में हो गया, तो सोना निखरेगा भी नहीं।
निश्चय करने को आपसे नहीं कहता। आप निश्चय करोगे कैसे? जो आदमी द्वंद्व में है, उसका निश्चय भी द्वंद्व से भरा होगा। जब द्वंद्व में हैं, तो निश्चय करेंगे कैसे? द्वंद्व से भरा आदमी निश्चय नहीं कर सकता; करना भी नहीं चाहिए।
द्वंद्व को जीएं, द्वंद्व में तपें, द्वंद्व में मरें और खपें, द्वंद्व को भोगें, द्वंद्व की आग से भागें मत। क्योंकि जो आग दिखाई पड़ रही है, उसी में कचरा जलेगा और सोना बचेगा। द्वंद्व से गुजरें; द्वंद्व को नियति समझें। वह मनुष्य की डेस्टिनी है, वह उसका भाग्य है। उससे गुजरना ही होगा। उसे जीएं। जल्दी न करें। निश्चय जल्दी न करें।
हां, द्वंद्व से गुजरें, तो निश्चय आएगा। द्वंद्व से गुजरें, तो श्रद्धा आएगी, लानी नहीं पड़ेगी। लाई गई श्रद्धा का कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि जो श्रद्धा लानी पड़ी है, उसका मतलब ही है कि अभी आने के योग्य मन न बना था; जल्दी ले आए। जो श्रद्धा बनानी पड़ी है, उसका अर्थ ही है कि पीछे द्वंद्वग्रस्त मन है। वह भीतर जिंदा रहेगा, ऊपर से पर्त श्रद्धा की हो जाएगी। वह ऊपर-ऊपर काम देगी, समय पर काम नहीं देगी।
जब कठिन समय होगा, मौत सामने खड़ी होगी। तो बहुत पक्का विश्वास कर लिया था कि आत्मा अमर है; जब गीता पढ़ते थे, तब पक्का विश्वास रहा था। जब रोज सुबह मंदिर जाते थे, तब पक्का था कि आत्मा अमर है। और जब डाक्टर पास खड़ा हो जाएगा, और उसका चेहरा उदास दिखाई पड़ेगा, और घर के लोग भागने-दौड़ने लगेंगे, और नाड़ी की गति गिरने लगेगी, तब अचानक पता चलेगा कि पता नहीं, आत्मा अमर है या नहीं!
क्योंकि लाख कहें गीताएं, उनके कहने से आत्मा अमर नहीं हो सकती। आत्मा अमर है, इसलिए वे कहती हैं, यह दूसरी बात है। लेकिन उनके कहने से आत्मा अमर नहीं हो सकती। और आप किसी को मान लें, इससे कुछ होने वाला नहीं है। हां, द्वंद्व से गुजरें, पीड़ा को झेलें, वह अवसर है; उससे बचने की कोशिश मत करें।
अर्जुन भी बचने की कोशिश कर रहा है। लेकिन कृष्ण उसे बचाने की कोशिश नहीं कर रहे; वे पूरे द्वंद्व को खींचते हैं। अन्यथा कृष्ण कहते कि बेफिक्र रहो, मैं सब जानता हूं। बेकार की बातचीत मत कर। मुझ पर श्रद्धा रख और कूद जा, ऐसा भी कह सकते थे। इतनी लंबी गीता कहने की जरूरत न थी।
इतनी लंबी गीता अर्जुन के द्वंद्व के प्रति बड़ा सम्मान है। और मजा है कि अर्जुन बार-बार वही पूछता है। और कृष्ण हैं कि यह नहीं कहते कि यह तो तू पूछ चुका! फिर वही पूछता है। फिर वही पूछता है। सारे के सारे, पूरे के पूरे प्रश्न अर्जुन के अलग-अलग नहीं हैं। सिर्फ शब्दावली अलग है। बात वह वही पूछ रहा है। उसका द्वंद्व बार-बार लौट आ रहा है। कृष्ण उससे यह नहीं कहते कि चुप, अश्रद्धा करता है! चुप, अविश्वास करता है! अर्जुन पूछता है वही-वही दोहरा-दोहराकर। उसका द्वंद्व ही बार-बार नए-नए रूप लेकर खड़ा हो जाता है।
कृष्ण उसे विश्वास दिलाने को उत्सुक नहीं हैं। कृष्ण उसे श्रद्धा तक पहुंचाने को जरूर उत्सुक हैं। और विश्वास और श्रद्धा में बड़ा फर्क है। विश्वास वह है, जो हम संदेह को हल किए बिना ऊपर से आरोपित कर लेते हैं। श्रद्धा वह है, जो संदेह के गिर जाने से फलित होती है। श्रद्धा, संदेह की ही यात्रा से मिली मंजिल है। विश्वास, संदेह के भय से पकड़ लिए गए अंधे आधार हैं।
तो मैं कहूंगा, जीएं द्वंद्व को, तीव्रता से जीएं, इंटेंसिटी से जीएं। धीरे-धीरे जीएंगे, तो बहुत समय लगेगा। कुनकुनी आंच में डाल देंगे सोने को, तो निखरने में जन्म लग सकते हैं। तीव्रता से जीएं।
द्वंद्व मनुष्य का अनिवार्य परीक्षण है, जिससे वह परमात्मा तक पहुंचने की योग्यता का निर्णय दे पाता है। जीएं, भागें मत। एस्केप न करें, कंसोलेशंस मत खोजें, सांत्वनाएं मत बनाएं। जानें कि यही है नियति; द्वंद्व है। लड़ें, तीव्रता से उतरें इस द्वंद्व में। क्या होगा इसका परिणाम?
इसके दो परिणाम होंगे। जैसे ही कोई व्यक्ति अपने चित्त के द्वंद्व में पूरी तरह उतरने को राजी हो जाता है, वैसे ही उस व्यक्ति के भीतर एक तीसरा बिंदु भी पैदा हो जाता है, दो के अलावा तीसरी ताकत भी पैदा हो जाती है। जैसे ही कोई व्यक्ति अपने द्वंद्व को जीने के लिए राजी होता है, वैसे ही उसके भीतर दो नहीं, तीन शुरू हो जाते हैं। दि थर्ड फोर्स, वह जो निर्णय करती है कि जीएंगे द्वंद्व को, वह द्वंद्व के बाहर है; वह द्वंद्व के भीतर नहीं है।
मैंने सुना है, सेंट थेरेसा एक ईसाई फकीर औरत हुई है। उसके पास तीन पैसे थे। और एक दिन सुबह उसने गांव में कहा कि मैं एक बड़ा चर्च बनाना चाहती हूं। मेरे पास काफी पैसे आ गए हैं। लोग हैरान हुए, क्योंकि कल भी उसको लोगों ने भीख मांगते देखा था। लोगों ने पूछा कि इतने पैसे अचानक कहां से आ गए, जिससे बड़ा चर्च बनाने का खयाल है? उसने अपना भिक्षापात्र दिखाया, उसमें तीन पैसे थे। लोगों ने कहा, पागल तो नहीं हो गई थेरेसा! वैसे हम पहले ही सोचते थे कि तेरा दिमाग कुछ गड़बड़ है!
असल में भगवान की तरफ जो लोग जाते हैं, उनका दिमाग उनको थोड़ा गड़बड़ दिखाई पड़ता ही है, जो नहीं जाते हैं।
हम पहले ही सोचते थे कि तेरा दिमाग कुछ न कुछ ढीला है। तीन पैसे से चर्च बनाएगी? थेरेसा ने कहा, मैं हूं, तीन पैसे हैं और परमात्मा भी है। थेरेसा + तीन पैसे + परमात्मा। उन सबने कहा, वह परमात्मा कहां है? तो थेरेसा ने कहा कि वह थर्ड फोर्स है, वह तीसरी शक्ति है; वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगी; क्योंकि अभी तुम अपने भीतर तीसरी शक्ति को नहीं खोज सके हो।
जो व्यक्ति अपने भीतर तीसरी शक्ति को खोज लेता है, वह इस सारे जगत में भी तीसरी शक्ति को तत्काल देखने में समर्थ हो जाता है। आप द्वंद्व को ही देख रहे हैं, लेकिन यह खयाल नहीं है कि जो द्वंद्व को देख रहा है और समझ रहा है, वह द्वंद्व में नहीं हो सकता; वह द्वंद्व के बाहर ही होगा। अगर दो लड़ रहे हैं आपके भीतर, तो निश्चित ही आप उन दोनों के बाहर हैं, अन्यथा देखेंगे कैसे? अगर उन दोनों में से एक से जुड़े होते, तब तो एक से आपका तादात्म्य हो गया होता और दूसरे से आप अलग हो गए होते।
लेकिन आप कहते हैं, द्वंद्व हो रहा है, मेरे बाएं और दाएं हाथ लड़ रहे हैं। मेरे बाएं और दाएं हाथ लड़ पाते हैं, क्योंकि इन बाएं और दाएं हाथ के पीछे मैं एक तीसरी ताकत हूं। अगर मैं बायां हाथ हूं, तो दाएं हाथ से मेरा क्या आंतरिक द्वंद्व है? वह पराया हो गया। अगर मैं दायां हाथ नहीं बायां हाथ हूं, तो दायां हाथ पराया हो गया, आंतरिक द्वंद्व कहां है?
आंतरिक द्वंद्व इसीलिए है कि एक तीसरा भी है, जो देख रहा है। जो कह रहा है कि मन में बड़ा द्वंद्व है। मन कभी यह कहता है, मन कभी वह कहता है। लेकिन जो मन के द्वंद्व के संबंध में कह रहा है, यह कौन है?
द्वंद्व में उतरें और इस तीसरे को पहचानते जाएं। जैसे-जैसे द्वंद्व में उतरेंगे, यह तीसरा साक्षी, यह विटनेस दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। और जिस दिन यह तीसरा दिखाई पड़ा, उसी दिन से द्वंद्व विदा होने शुरू हो जाएंगे। तीसरा नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए द्वंद्व है। तीसरा दिखाई पड़ता है, तो जोड़ शुरू हो जाता है।
पर द्वंद्व से भागें मत। द्वंद्व की प्रक्रिया अनिवार्य है। उससे ही गुजरकर, वह जो द्वंद्व के पार है, ट्रांसेंडेंटल है, उसे पाया जाता है।
पूरी गीता उस तीसरे बिंदु पर ही खींचने की कोशिश है अर्जुन को, पूरे समय अर्जुन को खींचने की चेष्टा कृष्ण की यही है कि वह तीसरे को पहचान ले। वह तीसरे को पहचान ले, तीसरे की पहचान के लिए सारा श्रम है। वह तीसरा सबके भीतर है और सबके बाहर भी है। लेकिन जब तक भीतर न दिखाई पड़े, तब तक बाहर दिखाई नहीं पड़ सकता है। भीतर दिखाई पड़े, तो बाहर वही-वही दिखाई पड़ने लगता है।…. 10 क्रमशः

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३