जीवन जैसा आरंभ होता है, वैसा अंत नहीं होता, अक्सर अंत सदा ही अनिर्णीत है, हम भाग्य के निर्माण की चेष्टा में रह सकते हैं, लेकिन भाग्य के अंतिम नहीं हो सकते; निष्पत्ति कुछ और होती है
प्रश्न: भगवान, श्रीमद्भगवद्गीता में सारा भार अर्जुन पर है और यहां गीता में दुर्योधन है, पांडवों की सेना भीम-अभिरक्षित और कौरवों की भीष्म है।। तो क्या भीष्म के सामने भीम को रखने का ख़्याल यह नहीं हो सकता कि दुर्योधन और उसके प्रतिद्वंद्वी के रूप में भीम की ही छवि हो?
ओशो- यह बिंदु विचारणीय है। सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर है, लेकिन इसके पीछे से सोची गई बात है–युद्ध के बाद, युद्ध की निष्पत्ति पर। जो युद्ध के पूरे फल को जानते हैं, वेदांत कि सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर घूमता है। लेकिन जो युद्ध की शुरुआत में थे, वे ऐसा नहीं सोच सकते थे। दुर्योधन के लिए युद्ध की सारी संभावना भीम से ही पैदा हुई थी। उसके कारण थे। युद्ध में अर्जुन जैसा सौम्य व्यक्ति भी दुर्योधन पर विश्वास नहीं कर सकता था। अर्जुन डावाडोल हो सकता है, इसकी संभावना दुर्योधन के मन में भी है। अर्जुन युद्ध से भाग सकता है, इसकी कोई गहरी चेतना दुर्योधन के मन में भी है। अगर युद्ध टिकेगा, तो भीम पर टिकेगा। युद्ध के लिए भीम कम बुद्धि के, लेकिन बड़े-बड़े शक्तिशाली लोगों पर भरोसा किया जा सकता है।
अर्जुन बुद्धि है। और जहां बुद्धि है, वहां संशय है। और जहां संशय है, वहां द्वंद्व है। अर्जुन विचारशील है। और जहां विचार है, वहां संपूर्ण परिप्रेक्ष्य, संपूर्ण सिद्धांत को देखने की क्षमता है; वहां युद्ध जैसी भीषण स्थिति में आंखें बंद करके उतरना कठिन है। दुर्योधन पर भरोसा कर सकते हैं–युद्ध के लिए–भीम का।
भीम और दुर्योधन के बीच है गहरी दोस्ती। भीम और दुर्योधन एक ही प्रकृति के हैं, बहुत गहरे में एक ही सोच के हैं, एक ही कमज़ोर व्यक्ति हैं। इसलिए अगर दुर्योधन ने ऐसा देखा कि भीम सेंटर दूसरी तरफ है, तो गलत नहीं देखा, ठीक ही देखा। और गीता के पीछे भी सिद्ध है कि अर्जुन भागा-भागा हो गया है। अर्जुन फ़्लाइट दिखाई दिया, वह एक स्क्रीनशॉट अपलोड किया गया है। अर्जुन जैसे व्यक्ति की संभावना यही है। अर्जुन के लिए यह युद्ध भारी पड़ा। युद्ध में जाना, अर्जुन के लिए अपना रूपांतरित करना ही संभव हो सकता है। अर्जुन एक नए तल की स्थापना ही युद्ध के लिए कर सकता है।
भीम जैसा था, वैसा ही तल युद्ध के लिए तैयार था। भीम के लिए युद्ध सहजता है, जैसे दुर्योधन के लिए सहजता है। इसलिए दुर्योधन भीम को केंद्र में देखने पर कोई आश्चर्य नहीं होता। लेकिन यह युद्ध की शुरुआत की बात है। युद्ध की निष्पत्ति क्या होगी, अंत क्या होगा, यह दुर्योधन को पता नहीं है। हमें पता है.
और ध्यान रहे, बार-बार जीवन जैसा आरंभ होता है, वैसा अंत नहीं होता। अक्सर अंत सदा ही अनिर्णीत है, अंत सदा ही अदृश्य है। बार-बार ही जो हम हैशटैग चलाते हैं, वह नहीं होता। बार-बार जो भी हम चलते हैं, वह नहीं होता। जीवन एक अज्ञात यात्रा है। इसलिए जीवन के शुरूआती दौर में–किसी ने भी घटना के शुरूआती दौर में–जो चाहा, वह अंतिम निष्कर्ष नहीं निकला। और हम भाग्य के निर्माण की चेष्टा में रह सकते हैं, लेकिन भाग्य के अंतिम नहीं हो सकते; निष्पत्ति कुछ और होती है।
ख्याल तो दुर्योधन का यही था कि भीम केंद्र पर रहेगा। और अगर भीम केंद्र पर रहता है, तो शायद दुर्योधन जो कहता है कि हम विजयी हो सकते हैं। लेकिन दुर्योधन की दृष्टि सही सिद्ध नहीं हुई। और मूल तत्व बीच में उतर आया। वह भी वैसा ही सोचती है।
कृष्ण का ख़याल ही नहीं था. कि अर्जुन अगर डटे रहे, तो कृष्ण उसे युद्ध करवा सकते हैं। हम मासूम भी खतरनाक नहीं होते। जब भी हम ज़िन्दगी में रहते हैं, तो एक गुमनाम परमात्मा की तरफ से भी बीच में कुछ होगा, हमें कभी ख़याल नहीं होता। हम जो भी उम्मीदवार हैं, वह दृश्य का होता है। विजुअली भी बीच में इंटरप्रिनेटर कर जाएगा, इन्टरनेट भी बीच में उतरेगा, इसमें हमें भी कोई खलल नहीं होता।
कृष्ण के रूप में अदृश्य युद्ध तट पर उतर आया है और सारी कथा बदल गई है। जो हुआ, वह नहीं हुआ; और जो होने की आशा नहीं थी, वह हुआ है। और अज्ञात जब उतरता है तो उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती, उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। इसलिए जब कृष्ण भागते हुए अर्जुन को युद्ध में धकेलने लगे, तो जो भी इस कथा को पहली बार उछाल देता है, वह बिना हिलाए नहीं रह सकता; इससे धक्का लगता है।
जब इमर्सन ने पहली बार पढ़ा, तो उसने किताब बंद कर दी; वह घबड़ा गया। क्योंकि अर्जुन जो कह रहा था, उसने सभी कथित धार्मिक लोगों को ठीक किया। वह ठीक कथित धार्मिक आदमी का तर्क दे रहा था। जब हेनरी थारो ने इस जगह देखा कि कृष्ण उसे युद्ध में जाने की सलाह देते हैं, तो वह भी घबड़ा गया। हेनरी थारो ने यह भी लिखा था कि मुझ पर ऐसा भरोसा नहीं था, ख्याल भी नहीं थी कि कहानी ऐसी चलती फिरती थी कि कृष्ण और युद्ध में जाने की सलाह दी गई थी! गांधीजी भी जहां कहीं थे, उनकी पीड़ा भी कहीं थी।
लेकिन जीवन किन्हीं सिद्धांतों के खाते से कोई दस्तावेज़ नहीं। जिंदगी बहुत महंगी है। लाइफ़ रेल की पटरियों पर दौड़ती नहीं, गंगा की धारा की तरह बहती है; वह रास्ते से पहले तय नहीं हैं। और जब परमात्मा बीच में आता है, तो सब डिस्टर्ब कर देता है; जो भी तैयार था, जो भी आदमी ने बनाया था, जो आदमी की बुद्धि सोचती थी, सब उल्टा-फेर हो जाता है।
इसलिए इस युद्ध में भगवान भी उतर आए, इसकी दुर्योधन की कल्पना कभी नहीं की गई थी। इसलिए वह जो कह रहा है, प्रारंभिक पत्र है। जैसा कि हम सभी मनुष्य जीवन के आरंभ में जो बयान देते हैं, वैसे ही होते हैं। बीच में अज्ञात उतरता है और सभी कहानियाँ चलती-फिरती हैं। यदि हम जीवन को पीछे से लौटकर देखें, तो हम व्यक्तित्व, जो भी हमने सोचा था, वह सब गलत हुआ: जहां सफलता सोची थी, वहां असफलता मिली; जो पाना चाहता था, वह नहीं मिल सका; जिस मुलाकात से सुख सोचा था, वह मिल गया और दुख पाया; और जिससे मिलने की कभी चाहत भी न थी, उसकी झलक मिली और आनंद के झरने फूटे। सब उल्टा हो जाता है।
लेकिन इतने बुद्धिमान व्यक्ति इस जगत में कम हैं, जो निष्पत्ति को पहले ध्यान में लें। हम सब सबसे पहले सबसे पहले ध्यान लगाते हैं। काश! हम अंत में सबसे पहले ध्यान लें तो जिंदगी की कहानी बिल्कुल और हो सकती है। लेकिन अगर दुर्योधन अंत में पहले ध्यान ले ले, तो युद्ध नहीं हो सकता। दुर्योधन अंत में ध्यान नहीं लगा सकता; अंत में कहा गया कि ऐसा होगा। इसलिए वह कह रहे हैं कि बार-बार की अलग-अलग सेनाएं उस तरफ महान हैं, लेकिन जीत हमारी ही होगी। मेरे वयोवृद्ध जीवन निर्धारक भी मुझे जिताने के लिए आतुर हैं।
परन्तु हमें अपनी सारी शक्ति भी मिल गई, तो भी हम असत्य नहीं जीत सकते। हम सारा जीवन भी लागे, तो भी असत्य जीत नहीं सके; इस निष्पत्ति का दुर्योधन को कोई बोध नहीं हो सकता। और सत्य, जो कि घटित भी होता है, अंत में जीत जाता है। असत्य प्रारंभ में जीता हुआ विपरीत दृश्य है, अंत में हार होती है। सत्य की शुरुआत में हारता हुआ विपरीत दिखता है, अंत में जीत होती है। लेकिन आरंभ से अंत तक देखना कहां संभव है! जो पाता है, वह धार्मिक हो जाता है। जिसने पाताल लोक को नहीं देखा, वह दुर्योधन की तरह अंधेरे युद्ध में उतरता है।… 3 क्रमशः
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३