मनुष्य का मन जब हीनता की ग्रंथि से, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित होता है, जब मनुष्य का मन अपने को भीतर हीन समझता है, तब सदा ही अपनी श्रेष्ठता की चर्चा से शुरू करता है

 मनुष्य का मन जब हीनता की ग्रंथि से, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित होता है, जब मनुष्य का मन अपने को भीतर हीन समझता है, तब सदा ही अपनी श्रेष्ठता की चर्चा से शुरू करता है

प्रश्न:
भगवान, अंधे धृतराष्ट्र को युद्ध की रिपोर्ताज निवेदित करने वाले संजय की गीता में क्या भूमिका है? संजय क्या क्लेअरवायन्स, दूर-दृष्टि या क्लेअरआडियन्स, दूर-श्रवण की शक्ति रखता था? संजय की चित्‌-शक्ति की गंगोत्री कहां पर है? क्या वह स्वयंभू भी हो सकती है?

ओशो- कुछ दिनों पहले स्कैंडिनेविया में एक व्यक्ति किसी दुर्घटना में जमीन पर गिर गया कार से। उसके सिर को चोट लग गई। और अस्पताल में जब वह होश में आया तो बहुत मुश्किल में पड़ा। उसके कान में कोई जैसे गीत गा रहा हो, ऐसा सुनाई पड़ने लगा। उसने समझा कि शायद मेरा दिमाग खराब तो नहीं हो गया! लेकिन एक या दो दिन के भीतर स्पष्ट, सब साफ होने लगा। और तब तो यह भी साफ हुआ कि दस मील के भीतर जो रेडियो स्टेशन था, उसके कान ने उस रेडियो स्टेशन को पकड़ना शुरू कर दिया है। फिर उसके कान का सारा अध्ययन किया गया और पता चला कि उसके कान में कोई भी विशेषता नहीं है, लेकिन चोट लगने से कान में छिपी कोई शक्ति सक्रिय हो गई है। आपरेशन करना पड़ा, क्योंकि अगर चौबीस घंटे–आन-आफ करने का तो कोई उपाय नहीं था–अगर उसे कोई स्टेशन सुनाई पड़ने लगे, तो वह आदमी पागल ही हो जाए।
पिछले दो वर्ष पहले इंग्लैंड में एक महिला को दिन में ही आकाश के तारे दिखाई पड़ने शुरू हो गए। वह भी एक दुर्घटना में ही हुआ। छत से गिर पड़ी और दिन में आकाश के तारे दिखाई पड़ने शुरू हो गए। तारे तो दिन में भी आकाश में होते हैं, कहीं चले नहीं जाते; सिर्फ सूर्य के प्रकाश के कारण ढंक जाते हैं। रात फिर उघड़ जाते हैं, प्रकाश हट जाने से। लेकिन आंखें अगर सूर्य के प्रकाश को पार करके देख पाएं, तो दिन में भी तारों को देख सकती हैं। उस स्त्री की भी आंख का आपरेशन ही करना पड़ा।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि आंख में भी शक्तियां छिपी हैं, जो दिन में आकाश के तारों को देख लें। कान में भी शक्तियां छिपी हैं, जो दूर के रेडियो स्टेशन से विस्तारित ध्वनियों को पकड़ लें। आंख में भी शक्तियां छिपी हैं, जो समय और क्षेत्र की सीमाओं को पार करके देख लें। लेकिन अध्यात्म से इनका कोई बहुत संबंध नहीं है।
तो संजय कोई बहुत आध्यात्मिक व्यक्ति हो, ऐसा नहीं है; संजय विशिष्ट व्यक्ति जरूर है। वह दूर युद्ध के मैदान पर जो हो रहा है, उसे देख पा रहा है। और संजय को इस शक्ति के कारण, कोई परमात्मा, कोई सत्य की उपलब्धि हो गई हो, ऐसा भी नहीं है। संभावना तो यही है कि संजय इस शक्ति का उपयोग करके ही समाप्त हो गया हो।
अक्सर ऐसा होता है। विशेष शक्तियां व्यक्ति को बुरी तरह भटका देती हैं। इसलिए योग निरंतर कहता है कि चाहे शरीर की सामान्य शक्तियां हों और चाहे मन की–साइकिक पावर की–विशेष शक्तियां हों, शक्तियों में जो उलझता है वह सत्य तक नहीं पहुंच पाता।
पर, यह संभव है। और इधर पिछले सौ वर्षों में पश्चिम में साइकिक रिसर्च ने बहुत काम किया है। और अब किसी आदमी को संजय पर संदेह करने का कोई कारण वैज्ञानिक आधार पर भी नहीं रह गया है। और ऐसा ही नहीं कि अमेरिका जैसे धर्म को स्वीकार करने वाले देश में ऐसा हो रहा हो; रूस के भी मनोवैज्ञानिक मनुष्य की अनंत शक्तियों का स्वीकार निरंतर करते चले जा रहे हैं।
और अभी चांद पर जाने की घटना के कारण रूस और अमेरिका के सारे मनोवैज्ञानिकों पर एक नया काम आ गया है। और वह यह है कि यंत्रों पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता। और जब हम अंतरिक्ष की यात्रा पर पृथ्वी के वासियों को भेजेंगे, तो हम उन्हें गहन खतरे में भेज रहे हैं। और अगर यंत्र जरा भी बिगड़ जाएं तो उनसे हमारे संबंध सदा के लिए टूट जाएंगे; और फिर हम कभी पता भी नहीं लगा सकेंगे कि वे यात्री कहां खो गए। वे जीवित हैं, जीवित नहीं हैं, वे किस अनंत में भटक गए–हम उनका कोई भी पता न लगा सकेंगे। इसलिए एक सब्स्टीट्यूट, एक परिपूरक व्यवस्था की तरह, दूर से बिना यंत्र के देखा जा सके, सुना जा सके, खबर भेजी जा सके, इसके लिए रूस और अमेरिका दोनों की वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं अति आतुर हैं। और बहुत देर न होगी कि रूस और अमेरिका दोनों के पास संजय होंगे। हमारे पास नहीं होंगे।
संजय कोई बहुत आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं है। लेकिन संजय के पास एक विशेष शक्ति है, जो हम सबके पास भी है, और विकसित हो सकती है।
संजय उवाच
दृष्ट्‌वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌।। 2।।
संजय ने कहा: युद्ध की तैयारी के समय व्यूहाकार पांडवों की सेना को देख कर दुर्योधन ने द्रोणाचार्य के पास जाकर ये वचन कहे।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।। 3।।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।। 4।।
हे आचार्य, आपके तीक्ष्णबुद्धि शिष्य धृष्टद्युम्न द्वारा शकट, पद्म आदि व्यूहाकार से रची गई पांडवों की इस विशाल सेना को देखिए। पांडवों की सेना में सभी योद्धा, शूरवीर, महाधनुर्धारी एवं पराक्रम में भीम और अर्जुन के तुल्य हैं। उनमें सात्यकि, विराट, महारथी द्रुपद हैं।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगवः।। 5।।
बलवान धृष्टकेतु, चेकितान और काशिराज तथा नरश्रेष्ठ पुरुजित, कुंतिभोज और शैब्य।
युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।। 6।।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।। 7।।
पराक्रमशाली युधामन्यु, उत्तमौजा, वीर्यवान सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पांचों पुत्र, ये सभी महारथी हैं। हे आचार्यवर, हम लोगों के मध्य में बल, पौरुष, पराक्रम आदि से उत्कृष्ट जो मेरी सेना के नायक हैं, उन्हें आपके परिज्ञान के लिए मैं आपसे कहता हूं।
मनुष्य का मन जब हीनता की ग्रंथि से, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित होता है, जब मनुष्य का मन अपने को भीतर हीन समझता है, तब सदा ही अपनी श्रेष्ठता की चर्चा से शुरू करता है। लेकिन जब हीन व्यक्ति नहीं होते, तब सदा ही दूसरे की श्रेष्ठता से चर्चा शुरू होती है। यह दुर्योधन कह रहा है द्रोणाचार्य से, पांडवों की सेना में कौन-कौन महारथी, कौन-कौन महायोद्धा इकट्ठे हैं। इससे वह शुरू कर रहा है। यह बड़ी प्रतीक की, बड़ी सिम्बालिक बात है। साधारणतः शत्रु की प्रशंसा से बात शुरू नहीं होती। साधारणतः शत्रु की निंदा से बात शुरू होती है। साधारणतः शत्रु के साथ अपनी प्रशंसा से बात शुरू होती है। शत्रु की सेना में कौन-कौन महावीर इकट्ठे हैं, दुर्योधन उनसे बात शुरू कर रहा है।
दुर्योधन कैसा भी व्यक्ति हो, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित व्यक्ति नहीं है, हीनता की ग्रंथि से पीड़ित व्यक्ति नहीं है। और यह बड़े मजे की बात है कि अच्छा आदमी भी अगर हीनता की ग्रंथि से पीड़ित हो तो उस बुरे आदमी से बदतर होता है, जो हीनता की ग्रंथि से पीड़ित नहीं है। दूसरे की प्रशंसा से केवल वही शुरू कर सकता है, जो अपने प्रति बिलकुल आश्वस्त है।
यह एक बुनियादी अंतर सदियों में पड़ा है। बुरे आदमी पहले भी थे, अच्छे आदमी पहले भी थे। ऐसा नहीं है कि आज बुरे आदमी बढ़ गए हैं और अच्छे आदमी कम हो गए हैं। आज भी बुरे आदमी उतने ही हैं, अच्छे आदमी उतने ही हैं। अंतर क्या पड़ा है?
निरंतर धर्म का विचार करने वाले लोग ऐसा प्रचार करते रहते हैं कि पहले लोग अच्छे थे और अब लोग बुरे हो गए हैं। ऐसी उनकी धारणा, मेरे खयाल में बुनियादी रूप से गलत है। बुरे आदमी सदा थे, अच्छे आदमी सदा थे। अंतर इतना ऊपरी नहीं है, अंतर बहुत भीतरी पड़ा है। बुरा आदमी भी पहले हीनता की ग्रंथि से पीड़ित नहीं था। आज अच्छा आदमी भी हीनता की ग्रंथि से पीड़ित है। यह गहरे में अंतर पड़ा है।
आज अच्छे से अच्छा आदमी भी बाहर से ही अच्छा-अच्छा है, भीतर स्वयं भी आश्वस्त नहीं है। और ध्यान रहे, जिस आदमी का आश्वासन स्वयं पर नहीं है, उसकी अच्छाई टिकने वाली अच्छाई नहीं हो सकती। बस, स्किनडीप होगी, चमड़ी के बराबर गहरी होगी। जरा-सा खरोंच दो और उसकी बुराई बाहर आ जाएगी। और जो बुरा आदमी अपनी बुराई के होते हुए भी आश्वस्त है, उसकी बुराई भी किसी दिन बदली जा सकती है, क्योंकि बहुत गहरी अच्छाई बुनियाद में खड़ी है–वह स्वयं का आश्वासन।
इस बात को मैं महत्वपूर्ण मानता हूं कि दुर्योधन जैसा बुरा आदमी एक बहुत ही शुभ ढंग से चर्चा को शुरू कर रहा है। वह विरोधी के गुणों का पहले उल्लेख कर रहा है, फिर पीछे अपनी सेना के महारथियों का उल्लेख कर रहा है।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्थैव च।। 8।।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्र प्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।। 9।।
आप, भीष्म पितामह, कर्ण, युद्ध में दुर्जेय कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा, वांगिद, भवदत्त, कृतवर्मा आदि और भी अनेक शूरवीरों ने प्राण देकर भी मेरी जीत कराने का निश्चय कर रखा है। ये सभी लोग भांति-भांति के शस्त्रास्त्रों से युद्ध करने वाले और सब प्रकार के युद्ध में कुशल हैं।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌।। 10।।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।। 11।।
यद्यपि हमारी सेना युद्ध के लिए पर्याप्त नहीं है, फिर भी उसके रक्षक भीष्म पितामह हैं, अतएव वह विजय के लिए पर्याप्त भी है। सामने खड़ी पांडवों की सेना युद्ध के लिए पर्याप्त होने पर भी भीमसेन से रक्षित होने के कारण अपर्याप्त ही है। हमारी विजय भीष्म पितामह के अधीन है, इसलिए आप सब लोग मोर्चों पर अपने-अपने स्थानों पर स्थित होकर भीष्म की ही रक्षा करें। …. 2 क्रमशः 

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३