प्रकृति में सभी निरुद्देश्य है, तो हम ही क्यों उद्देश्य लेकर चलें? “ओशो”

 प्रकृति में सभी निरुद्देश्य है, तो हम ही क्यों उद्देश्य लेकर चलें? “ओशो”

ओशो– अगर सब उद्देश्य छोड़ सको तो इससे बड़ा कोई उद्देश्य नहीं हो सकता। अगर प्रकृति जैसे हो सको तो सब हो गया। लेकिन आदमी अप्राकृतिक हो गया है, इसलिए वापस लौटने के लिए, उसे प्रकृति तक जाने के लिए भी उद्देश्य बनाना पड़ता है। यह दुर्भाग्य है। वही तो मैं कह रहा हूं कि सब छोड़ दो। लेकिन अभी तो हमने इतना पकड़ लिया है कि छोड़ना भी हमें एक उद्देश्य ही होगा। वह भी हमें छोड़ना पड़ेगा। हमने इतने जोर से पकड़ा है कि हमें छोड़ने में भी मेहनत करनी पड़ेगी। हालांकि छोड़ने में कोई मेहनत की जरूरत नहीं है। छोड़ने में क्या मेहनत करनी होगी!

यह ठीक है कि कहीं कोई उद्देश्य नहीं है। क्यों नहीं है लेकिन? नहीं होने का कारण यह नहीं है कि निरुद्देश्य है प्रकृति; नहीं होने का कारण यह है कि जो है, उसके बाहर कोई उद्देश्य नहीं है।

एक फूल खिला। वह किसी के लिए नहीं खिला है; और किसी बाजार में बिकने के लिए भी नहीं खिला है; राह से कोई गुजरे और उसकी सुगंध ले, इसलिए भी नहीं खिला है, कोई गोल्ड मेडल उसे मिले, कोई महावीर चक्र मिले, कोई पद्यश्री मिले, इसलिए भी नहीं खिला है। फूल बस खिला है, क्योंकि खिलना आनंद है; खिलना ही खिलने का उद्देश्य है। इसलिए ऐसा भी कह सकते हैं कि फूल निरुद्देश्य खिला है। और जब कोई निरुद्देश्य खिलेगा तभी पूरा खिल सकता है, क्योंकि जहां उद्देश्य है भीतर वहां थोड़ा अटकाव हो जाएगा। अगर फूल इसलिए खिला है कि कोई निकले, उसके लिए खिला है, तो अगर वह आदमी अभी रास्ते से नहीं निकल रहा तो फूल अभी बंद रहेगा; जब वह आदमी आएगा तब खिलेगा। लेकिन जो फूल बहुत देर बंद रहेगा, हो सकता है उस आदमी के पास आ जाने पर भी खिल न पाए, क्योंकि न खिलने की आदत मजबूत हो जाएगी। नहीं, फूल इसीलिए पूरा खिल पाता है कि कोई उद्देश्य नहीं है।

ठीक ऐसा ही आदमी भी होना चाहिए। लेकिन आदमी के साथ कठिनाई यह है कि वह सहज नहीं रहा है, वह असहज हो गया है। उसे सहज तक वापस लौटना है। और यह लौटना फिर एक उद्देश्य ही होगा।

तो मैं जब उद्देश्य की बात करता हूं तो वह उसी अर्थों में जैसे पैर में कांटा लग गया हो, और दूसरे कांटे से उसे निकालना पड़े। अब कोई आकर कहे कि मुझे कांटा लगा ही नहीं है तो मैं क्यों कांटे को निकालूं? उससे मैं कहूंगा, निकालने का सवाल ही नहीं है, तुम पूछने ही क्यों आए हो? कांटा नहीं लगा है, तब बात ही नहीं है। लेकिन कांटा लगा है, तो फिर दूसरे कांटे से निकालना पड़ेगा।

वह मित्र यह भी कह सकता है कि एक कांटा तो वैसे ही मुझे परेशान कर रहा है, अब आप दूसरा कांटा और पैर में डालने को कहते हो!

पहला कांटा परेशान कर रहा है, लेकिन एक कांटे को दूसरे कांटे से ही निकालना पड़ेगा। हां, एक बात ध्यान रखनी जरूरी है कि दूसरे कांटे को घाव में वापस मत रख लेना—कि इस कांटे ने बड़ी कृपा की, एक कांटे को निकाला; तो अब इस कांटे को हम अपने पैर में रख लें। तब नुकसान हो जाएगा। जब कांटा निकल जाए तो दोनों कांटे फेंक देना।

जब हमारा जो हमने अप्राकृतिक जीवन बना लिया है, जब वह सहज हो जाए, तो अप्राकृतिक को भी फेंक देना और सहज को भी फेंक देना; क्योंकि जब सहज पूरा होना हो, तो सहज होने का खयाल भी बाधा देता है। फिर तो जो होगा, होगा। नहीं, मैं नहीं कहता हूं कि उद्देश्य चाहिए। इसलिए कहना पड़ता है उद्देश्य कि आपने उद्देश्य पकड़ रखे हैं, कांटे लगा रखे हैं, अब उन कांटों को कीटों से ही निकालना पड़ेगा

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–02)
बुंद समानी समुंद में—(प्रवचन—दूसरा)