खजुराहो के मंदिर जिन्होंने बनाए थे, उनका खयाल यह था कि इन प्रतिमाओं को अगर कोई बैठ कर घंटे भर देखे तो वासना से शून्य हो जाएगा “ओशो”

 खजुराहो के मंदिर जिन्होंने बनाए थे, उनका खयाल यह था कि इन प्रतिमाओं को अगर कोई बैठ कर घंटे भर देखे तो वासना से शून्य हो जाएगा “ओशो”

सम्भोग से समाधि की ओर (जीवन उर्जा रुपांतरण का विज्ञान)

ओशो- खजुराहो के मंदिर जिन्होंने बनाए थे, उनका खयाल यह था कि इन प्रतिमाओं को अगर कोई बैठ कर घंटे भर देखे तो वासना से शून्य हो जाएगा। वे प्रतिमाएं आब्जेक्ट्‌स फॉर मेडिटेशन रहीं हजारों वर्ष तक। वे प्रतिमाएं ध्यान के लिए आब्जेक्ट का काम करती रही हैं। जो लोग अति कामुक थे, उन्हें खजुराहो के मंदिर के पास भेज कर उन पर ध्यान करवाने के लिए कहा जाता था कि तुम ध्यान करो–इन प्रतिमाओं को देखो और इनमें लीन हो जाओ।
और यह आश्चर्य की बात है…हालांकि हमारे अनुभव में है, लेकिन हमें खयाल नहीं। आपको पता है, रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों और आप रास्ते से चले जा रहे हों, तो आपका मन होता है कि खड़े होकर वह लड़ाई देख लें। लेकिन क्यों? आपने कभी खयाल किया? लड़ाई देखने से आपको क्या फायदा है? हजार जरूरी काम छोड़ कर आप आधे घंटे तक दो आदमियों की मुक्केबाजी देख सकते हैं खड़े होकर–फायदा क्या है? शायद आपको पता नहीं, फायदा एक है। दो आदमियों को लड़ते देख कर आपके भीतर जो लड़ने की प्रवृत्ति है वह विसर्जित होती है, उसका निकास होता है, वह एवोपरेट हो जाती है।
अगर मैथुन की प्रतिमा को कोई घंटे भर तक शांत बैठ कर ध्यानमग्न होकर देखे, तो उसके भीतर जो मैथुन करने का पागल भाव है, वह विलीन हो जाता है।
एक मनोवैज्ञानिक के पास एक आदमी को लाया गया था। वह एक दफ्तर में काम करता है। और अपने मालिक से, अपने बॉस से बहुत रुष्ट है। मालिक उससे कुछ भी कहता है तो उसे बहुत अपमान मालूम होता है और उसके मन में होता है कि निकालूं जूता और इसे मार दूं। लेकिन मालिक को जूता कैसे मारा जा सकता है? हालांकि ऐसे नौकर कम ही होंगे जिनके मन में यह खयाल न आता हो कि निकालूं जूता और मार दूं। ऐसा नौकर खोजना मुश्किल है। अगर आप मालिक हैं तो भी आपको पता होगा और आप अगर नौकर हैं तो भी आपको पता होगा–कि नौकर के मन में नौकर होने की भारी पीड़ा है और मन होता है कि इसका बदला ले लूं। लेकिन नौकर अगर बदला ले सकता तो नौकर होता क्यों?
तो वह बेचारा मजबूर है और दबाए चला जाता है, दबाए चला जाता है। फिर तो हालत उसकी ऐसी रुग्ण हो गई कि उसे यह डर पैदा हो गया कि किसी दिन आवेश में मैं जूता मार ही न दूं। तो वह जूता घर ही छोड़ जाता है। लेकिन दफ्तर में उसे जूते की दिन भर याद आती है और जब भी मालिक दिखाई पड़ता है वह पैर टटोल कर देखता है कि जूता? लेकिन जूता तो वह घर छोड़ आया है, और खुश होता है कि अच्छा हुआ मैं छोड़ आया, किसी दिन आवेश के क्षण में निकल आए जूता तो मुश्किल हो गई।
लेकिन घर जूता छोड़ आने से जूते से मुक्ति नहीं होती। जूता उसका पीछा करने लगा। वह कागज पर कुछ भी बनाता है तो जूता बन जाता है। वह रजिस्टर पर कुछ ऐसे ही लिख रहा है और पाता है कि जूते ने आकार लेना शुरू कर दिया। उसके प्राणों में जूता घिरने लगा है। वह बहुत घबरा गया है और उसे ऐसा डर लगने लगा है धीरे-धीरे कि मैं किसी भी दिन हमला कर सकता हूं।
तो उसने अपने घर आकर कहा कि अब मुझे नौकरी पर जाना ठीक नहीं, मैं छुट्टी लेना चाहता हूं; क्योंकि अब हालत ऐसी हो गई है कि मैं दूसरे का जूता निकाल कर भी मार सकता हूं। अब अपने जूते की जरूरत नहीं रह गई है। मेरे हाथ दूसरे लोगों के पैरों की तरफ भी बढ़ने की कोशिश करते हैं।
तो घर के लोगों ने समझा कि वह पागल हो गया है, उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले गए। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा कि इसकी बीमारी बड़ी नहीं, छोटी सी है। इसके मालिक की एक तस्वीर घर में लगा लो और इससे कहो कि रोज सुबह पांच जूते धार्मिक भाव से मारा करे। पांच जूते मारे, तब दफ्तर जाए–बिलकुल रिलीजसली। ऐसा नहीं कि किसी दिन चूक जाए। जैसे लोग ध्यान, जप करते हैं। बिलकुल वक्त पर पांच जूते मारे। दफ्तर से लौट कर पांच जूते मारे।
वह आदमी पहले तो बोला कि यह क्या पागलपन की बात है! लेकिन भीतर उसे खुशी मालूम हुई। वह हैरान हुआ, उसने कहा, लेकिन मुझे भीतर खुशी मालूम हो रही है।
तस्वीर टांग ली गई और वह रोज पांच जूते मार कर दफ्तर गया। पहले दिन ही जब वह पांच जूते मार कर दफ्तर गया तो उसे एक बड़ा अदभुत अनुभव हुआ–मालिक के प्रति उसने दफ्तर में उतना क्रोध अनुभव नहीं किया। और पंद्रह दिन के भीतर तो वह मालिक के प्रति अत्यंत विनयशील हो गया। मालिक को भी हैरानी हुई। उसे तो कुछ पता नहीं कि भीतर क्या चल रहा है। उसने उसको पूछा कि तुम आजकल बहुत आज्ञाकारी, बहुत विनम्र, बहुत हंबल हो गए हो। बात क्या है? उसने कहा, वह मत पूछिए, नहीं तो सब गड़बड़ हो जाएगा।
क्या हुआ? तस्वीर को जूते मारने से कुछ हो सकता है? लेकिन तस्वीर को जूते मारने से, वह जो जूते मारने का भाव है, वह तिरोहित हुआ, वह एवोपरेट हुआ, वह वाष्पीभूत हुआ।
खजुराहो के मंदिर या कोणार्क और पुरी के मंदिर जैसे मंदिर सारे देश के गांव-गांव में होने चाहिए। बाकी मंदिरों की कोई जरूरत नहीं है, वे बेवकूफी के सबूत हैं, उनमें कुछ नहीं है। उनमें न कोई वैज्ञानिकता है, न कोई अर्थ है, न कोई प्रयोजन है। वे निपट गंवारी के सबूत हैं। लेकिन खजुराहो के मंदिर जरूर अर्थपूर्ण हैं। जिस आदमी का भी मन सेक्स से बहुत भरा हो, वह जाकर उन पर ध्यान करे; और वह हलका लौटेगा, शांत लौटेगा।
तंत्र ने जरूर सेक्स को आध्यात्मिक बनाने की कोशिश की थी। लेकिन इस मुल्क के नीतिशास्त्री और जो मॉरल प्रीचर्स हैं, उन दुष्टों ने उनकी बात को समाज तक नहीं पहुंचने दिया। वे मेरी बात भी नहीं पहुंचने देना चाहते हैं।
यहां से मैं भारतीय विद्याभवन से बोल कर जबलपुर वापस लौटा और तीसरे दिन मुझे एक पत्र मिला कि अगर आप इस तरह की बातें कहना बंद नहीं कर देते हैं तो आपको गोली क्यों न मार दी जाए?
मैं उन्हें उत्तर देना चाहता था, लेकिन वे गोली मारने वाले सज्जन बहुत कायर मालूम पड़े, न उन्होंने नाम लिखा था, न पता लिखा था। शायद वे डरे होंगे कि मैं पुलिस को न दे दूं। लेकिन अगर वे यहां कहीं हों–अगर होंगे तो किसी झाड़ के पीछे या कहीं दीवाल के पीछे छिपे होंगे–अगर वे यहां कहीं हों तो मैं उनको कहना चाहता हूं कि पुलिस को देने की कोई भी जरूरत नहीं है। वे अपना नाम और पता मुझे भेज दें, ताकि मैं उनको उत्तर दे सकूं। लेकिन अगर उनकी हिम्मत न हो तो मैं उत्तर यहीं दिए देता हूं, ताकि वे सुन लें।
पहली तो बात यह है कि इतनी जल्दी गोली मारने की मत करना। क्योंकि गोली मारते ही, जो बात मैं कह रहा हूं वह परम सत्य हो जाएगी, इसका उनको पता होना चाहिए। …. 41 क्रमशः 

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-3