प्रेम स्वभाव की बात है, संबंध की बात नहीं, वह मनुष्य के व्यक्तित्व का भीतरी अंग है, अगर बच्चा एक किताब को भी गलत ढंग से रखे तो उसे उसी क्षण टोकना चाहिए कि यह तुम्हारे व्यक्तित्व के लिए शोभादायक नहीं “ओशो”
सम्भोग से समाधि की ओर (जीवन ऊर्जा रूपांतरण का विज्ञान)
ओशो- जो मां कहती है, मुझसे प्रेम कर, क्योंकि मैं मां हूं, वह प्रेम नहीं सिखा रही। उसे यह कहना चाहिए कि यह तेरा व्यक्तित्व, यह तेरे भविष्य, यह तेरे आनंद की बात है कि जो भी तेरे मार्ग पर पड़ जाए, तू उससे प्रेमपूर्ण हो–पत्थर पड़ जाए, फूल पड़ जाए, आदमी पड़ जाए, जानवर पड़ जाए। यह सवाल जानवर को प्रेम देने का नहीं, फूल को प्रेम देने का नहीं, मां को प्रेम देने का नहीं, तेरे प्रेमपूर्ण होने का है! क्योंकि तेरा भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि तू कितना प्रेमपूर्ण है, तेरा व्यक्तित्व कितना प्रेम से भरा हुआ है, उतना तेरे जीवन में आनंद की संभावना बढ़ेगी।
प्रेमपूर्ण होने की शिक्षा चाहिए मनुष्य को, तो वह कामुकता से मुक्त हो सकता है।
लेकिन हम तो प्रेम की कोई शिक्षा नहीं देते। हम तो प्रेम का कोई भाव पैदा नहीं करते। हम तो प्रेम के नाम पर भी जो बातें करते हैं, वह झूठ ही सिखाते हैं उनको।
क्या आपको पता है कि एक आदमी एक के प्रति प्रेमपूर्ण है और दूसरे के प्रति घृणापूर्ण हो सकता है? यह असंभव है। प्रेमपूर्ण आदमी प्रेमपूर्ण होता है, आदमियों से कोई संबंध नहीं है उस बात का। अकेले में बैठता है तो भी प्रेमपूर्ण होता है। कोई नहीं होता तो भी प्रेमपूर्ण होता है। प्रेमपूर्ण होना उसके स्वभाव की बात है। वह आपसे संबंधित होने का सवाल नहीं।
क्रोधी आदमी अकेले में भी क्रोधपूर्ण होता है। घृणा से भरा आदमी अकेले में भी घृणा से भरा होता है। वह अकेले भी बैठा है तो आप उसको देख कर कह सकते हैं कि यह आदमी क्रोधी है। हालांकि वह किसी पर क्रोध नहीं कर रहा है। लेकिन उसका सारा व्यक्तित्व क्रोधी है। प्रेमपूर्ण आदमी अगर अकेले में भी बैठा है तो आप कहेंगे, यह आदमी कितने प्रेम से भरा हुआ बैठा है।
फूल एकांत में खिलते हैं जंगल के तो वहां भी सुगंध बिखेरते रहते हैं, चाहे कोई सूंघने वाला हो या न हो। रास्ते से कोई निकले या न निकले, फूल सुगंधित होता रहता है। फूल का सुगंधित होना स्वभाव है। इस भूल में आप मत पड़ना कि आपके लिए सुगंधित हो रहा है।
प्रेमपूर्ण होना व्यक्तित्व बनाना चाहिए। वह हमारा व्यक्तित्व हो, इससे कोई संबंध नहीं कि वह किसके प्रति।
लेकिन जितने प्रेम करने वाले लोग हैं, वे सोचते हैं कि मेरे प्रति प्रेमपूर्ण हो जाए, और किसी के प्रति नहीं। और उनको पता नहीं कि जो सबके प्रति प्रेमपूर्ण नहीं, वह किसी के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता! पत्नी कहती है पति से, मुझे प्रेम करना बस! फिर आ गया स्टाप, फिर इधर-उधर कहीं देखना मत, फिर और कहीं तुम्हारे प्रेम की जरा सी धारा न बहे, बस प्रेम यानी इस तरफ। और उस पत्नी को पता नहीं कि यह प्रेम झूठा वह अपने हाथ से किए ले रही है। जो पति प्रेमपूर्ण नहीं है हर स्थिति में, हरेक के प्रति, वह पत्नी के प्रति भी प्रेमपूर्ण कैसे हो सकता है? प्रेमपूर्ण चौबीस घंटे के जीवन का स्वभाव
है। वह ऐसी कोई बात नहीं कि हम किसी के प्रति प्रेमपूर्ण हो जाएं और किसी के प्रति प्रेमहीन हो जाएं।
लेकिन आज तक मनुष्यता इसको समझने में समर्थ नहीं हो पाई! बाप कहता है कि मेरे प्रति प्रेमपूर्ण! लेकिन घर में जो चपरासी है उसके प्रति? वह तो नौकर है! लेकिन उसे पता नहीं कि जो बेटा एक बूढ़े नौकर के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हो पाया है–वह बूढ़ा नौकर भी किसी का बाप है–वह आज नहीं कल जब उसका बाप भी बूढ़ा हो जाएगा, उसके प्रति भी प्रेमपूर्ण नहीं रह जाएगा। तब यह बाप पछताएगा कि मेरा लड़का मेरे प्रति प्रेमपूर्ण नहीं है। लेकिन इस बाप को पता ही नहीं कि लड़का प्रेमपूर्ण हो सकता था उसके प्रति भी, अगर जो भी आस-पास थे, सबके प्रति प्रेमपूर्ण होने की शिक्षा दी गई होती तो वह इसके प्रति भी प्रेमपूर्ण होता।
प्रेम स्वभाव की बात है, संबंध की बात नहीं है।
प्रेम रिलेशनशिप नहीं है, प्रेम है स्टेट ऑफ माइंड। वह मनुष्य के व्यक्तित्व का भीतरी अंग है।
तो हमें प्रेमपूर्ण होने की दूसरी दीक्षा दी जानी चाहिए–एक-एक चीज के प्रति। अगर बच्चा एक किताब को भी गलत ढंग से रखे तो गलती बात है, उसे उसी क्षण टोकना चाहिए कि यह तुम्हारे व्यक्तित्व के लिए शोभादायक नहीं कि तुम इस भांति किताब को रखो। कोई देखेगा, कोई सुनेगा, कोई पाएगा कि तुम किताब के साथ दुर्व्यवहार किए हो! तुम एक कुत्ते के साथ गलत ढंग से पेश आए हो! यह तुम्हारे व्यक्तित्व की गलती है।…. 27 क्रमशः
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३