जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ज्यादा कामुकता, घृणा, विद्वेष, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा एवं दुःख होगा “ओशो”
सम्भोग से समाधि की ओर (जीवन ऊर्जा रूपांतरण का विज्ञान)
ओशो- यह मैं पहला चरण कहता हूं। ब्रह्मचर्य की साधना में, सेक्स के ऊपर उठने की साधना में, सेक्स की ऊर्जा के ट्रांसफार्मेशन के लिए पहला चरण है ध्यान। और दूसरा चरण है प्रेम। बच्चे को बचपन से ही प्रेम की दीक्षा दी जानी चाहिए।
हम अब तक यही सोचते रहे हैं कि प्रेम की शिक्षा मनुष्य को सेक्स में ले जाएगी। यह बात अत्यंत भ्रांत है। सेक्स की शिक्षा तो मनुष्य को प्रेम में ले जा सकती है, लेकिन प्रेम की शिक्षा कभी किसी मनुष्य को सेक्स में नहीं ले जाती। बल्कि सच्चाई उलटी है। जितना प्रेम विकसित होता है, उतनी ही सेक्स की ऊर्जा प्रेम में रूपांतरित होकर बंटनी शुरू हो जाती है।
जो लोग जितने कम प्रेम से भरे होते हैं, उतने ही ज्यादा कामुक होंगे, उतने ही सेक्सुअल होंगे।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ज्यादा घृणा होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतना ही विद्वेष होगा।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ईर्ष्या होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उतनी ही उनके जीवन में प्रतिस्पर्धा होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही चिंता और दुख होगा।
दुख, चिंता, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, इन सबसे जो आदमी जितना ज्यादा घिरा है, उसकी शक्तियां सारी की सारी भीतर इकट्ठी हो जाती हैं। उनके निकास का कोई मार्ग नहीं रह जाता। उनके निकास का एक ही मार्ग रह जाता है–वह सेक्स है।
प्रेम शक्तियों का निकास बनता है। प्रेम बहाव है। क्रिएशन, सृजनात्मक है प्रेम, इसलिए वह बहता है और एक तृप्ति लाता है। वह तृप्ति सेक्स की तृप्ति से बहुत ज्यादा कीमती और गहरी है। जिसे वह तृप्ति मिल गई–वह फिर कंकड़-पत्थर नहीं बीनता, जिसे हीरे-जवाहरात मिलने शुरू हो जाते हैं।
लेकिन घृणा से भरे आदमी को वह तृप्ति कभी नहीं मिलती है। घृणा में वह तोड़ देता है चीजों को। लेकिन तोड़ने से कभी किसी आदमी को कोई तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलती है निर्माण करने से। द्वेष से भरा आदमी संघर्ष करता है। लेकिन संघर्ष से कोई तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलती है दान से, देने से; छीन लेने से नहीं। संघर्ष करने वाला छीन लेता है। छीनने से वह तृप्ति कभी नहीं मिलती, जो किसी को दे देने से और दान से उपलब्ध होती है।
महत्वाकांक्षी आदमी एक पद से दूसरे पद की यात्रा करता रहता है, लेकिन कभी भी शांत नहीं हो पाता। शांत वे होते हैं, जो पदों की यात्रा नहीं, बल्कि प्रेम की यात्रा करते हैं। जो प्रेम के एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ की यात्रा करते हैं।
जितना आदमी प्रेमपूर्ण होता है, उतनी तृप्ति, एक कंटेंटमेंट, एक गहरा संतोष, एक आनंद का भाव, एक उपलब्धि का भाव उसके प्राणों के रग-रग में बहने लगता है। उसके सारे शरीर से एक रस झलकने लगता है, जो तृप्ति का रस है, जो आनंद का रस है। वैसा तृप्त आदमी सेक्स की दिशाओं में नहीं जाता। जाने के लिए, रोकने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती; वह जाता ही नहीं। क्योंकि यही तृप्ति क्षण भर को सेक्स से मिलती थी, प्रेम से यह तृप्ति चौबीस घंटे को मिल जाती है।
तो दूसरी दिशा है–कि व्यक्तित्व का अधिकतम विकास प्रेम के मार्गों पर होना चाहिए। हम प्रेम करें, हम प्रेम दें, हम प्रेम में जीएं। और जरूरी नहीं है कि हम प्रेम मनुष्य को ही देंगे तभी प्रेम की दीक्षा होगी। प्रेम की दीक्षा तो पूरे व्यक्तित्व के प्रेमपूर्ण होने की दीक्षा है, वह तो टु बी लविंग होने की दीक्षा है। एक पत्थर को भी हम उठाएं तो ऐसे उठा सकते हैं जैसे मित्र को उठा रहे हैं, और एक आदमी का हाथ भी हम ऐसे पकड़ सकते हैं जैसे शत्रु का हाथ पकड़े हुए हैं। एक आदमी वस्तुओं के साथ भी प्रेमपूर्ण व्यवहार कर सकता है, एक आदमी आदमियों के साथ भी ऐसा व्यवहार करता है जैसा वस्तुओं के साथ भी नहीं करना चाहिए। घृणा से भरा हुआ आदमी वस्तुएं समझता है मनुष्यों को। प्रेम से भरा हुआ आदमी वस्तुओं को भी व्यक्तित्व देता है।
एक फकीर से मिलने एक जर्मन यात्री गया हुआ था। वह किसी क्रोध में होगा। उसने दरवाजे पर जोर से जूते खोल दिए, जूतों को पटका, धक्का दिया दरवाजे को जोर से।
क्रोध में आदमी जूते भी खोलता है तो ऐसे जैसे जूते दुश्मन हों। दरवाजा भी खोलता है तो ऐसे जैसे दरवाजे से कोई झगड़ा हो!
दरवाजे को धक्का देकर वह भीतर गया। उस फकीर से जाकर नमस्कार किया। उस फकीर ने कहा कि नहीं, अभी मैं नमस्कार का उत्तर न दे सकूंगा। पहले तुम दरवाजे से और जूतों से क्षमा मांग आओ।
उस आदमी ने कहा, आप पागल हो गए हैं? दरवाजों और जूतों से क्षमा! क्या उनका भी कोई व्यक्तित्व है?
उस फकीर ने कहा, तुमने क्रोध करते समय कभी भी न सोचा कि इनका कोई व्यक्तित्व है। तुमने जूते ऐसे पटके जैसे उनमें जान हो, जैसे उनका कोई कसूर हो; तुमने दरवाजा ऐसे खोला जैसे कि तुम दुश्मन हो। नहीं, जब तुमने क्रोध करते वक्त उनका व्यक्तित्व मान लिया, तो पहले जाओ क्षमा मांग कर आ जाओ, तब मैं तुमसे आगे बात करूंगा, अन्यथा मैं बात करने को नहीं हूं।
अब वह आदमी दूर जर्मनी से उस फकीर को मिलने गया था, इतनी सी बात पर मुलाकात न हो सकेगी। मजबूरी थी। उसे जाकर दरवाजे पर हाथ जोड़ कर क्षमा मांगनी पड़ी कि मित्र, क्षमा कर दो! जूतों को कहना पड़ा, माफ करिए, भूल हो गई हमने जो आपको इस भांति गुस्से में खोला!
उस जर्मन यात्री ने लिखा है कि लेकिन जब मैं क्षमा मांग रहा था तो पहले तो मुझे हंसी आई कि मैं क्या पागलपन कर रहा हूं! लेकिन जब मैं क्षमा मांग चुका तो मैं हैरान हुआ, मुझे एक इतनी शांति मालूम हुई जिसकी मुझे कल्पना नहीं हो सकती थी कि दरवाजे और जूतों से क्षमा मांग कर शांति मिल सकती है! मैं जाकर उस फकीर के पास बैठा, वह हंसने लगा। और उसने कहा, अब ठीक, अब कुछ बात हो सकती है। तुमने थोड़ा प्रेम जाहिर किया, अब तुम संबंधित हो सकते हो, समझ भी सकते हो; क्योंकि अब तुम प्रफुल्लित हो, अब तुम आनंद से भर गए हो।
सवाल मनुष्यों के साथ ही प्रेमपूर्ण होने का नहीं, प्रेमपूर्ण होने का है। यह सवाल नहीं है कि मां को प्रेम दो! ये गलत बातें हैं। जब कोई मां अपने बच्चे को कहती है कि मैं तेरी मां हूं इसलिए प्रेम कर, तब वह गलत शिक्षा दे रही है। क्योंकि जिस प्रेम में ‘इसलिए’ लगा हुआ है, ‘देयरफोर’, वह प्रेम झूठा है। जो कहता है, इसलिए प्रेम करो कि मैं बाप हूं, वह गलत शिक्षा दे रहा है। वह कारण बता रहा है प्रेम का। प्रेम अकारण होता है, प्रेम कारण सहित नहीं होता। मां कहती है, मैं तेरी मां हूं, मैंने तुझे इतने दिन पाला-पोसा, बड़ा किया, इसलिए प्रेम कर! वह वजह बता रही है, प्रेम खत्म हो गया। अगर वह प्रेम भी होगा तो बच्चा झूठा प्रेम दिखाने की कोशिश करेगा–क्योंकि यह मां है, इसलिए प्रेम दिखाना पड़ रहा है।
नहीं, प्रेम की शिक्षा का मतलब है: प्रेम का कारण नहीं, प्रेमपूर्ण होने की सुविधा और व्यवस्था कि बच्चा प्रेमपूर्ण हो सके।….. 26 क्रमशः
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३