हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ और हमें दिखाई पड़ गया कि आदमी के कपड़ों के भीतर जानवर बैठा हुआ है, जो मंदिरों और मस्जिदों में दिखाई पड़ते थे, वे ही लोग हत्या और बलात्कार करते हुए दिखाई पड़ने लगे! क्या हो गया था इनको? “ओशो”
सम्भोग से समाधि की ओर (जीवन ऊर्जा रूपांतरण का विज्ञान)
ओशो- मनुष्य की जाति को अगर हम नया द्वार न दे सकें तो मनुष्य एक रिपिटीटिव सर्किल में, एक पुनरुक्ति वाले चक्कर में घूमता है और नष्ट होता है। लेकिन आज तक सेक्स के संबंध में जो भी धारणाएं रही हैं, वे मनुष्य को सेक्स के अतिरिक्त नया द्वार खोलने में समर्थ नहीं बना पाईं। बल्कि एक उलटा उपद्रव हुआ। प्रकृति एक ही द्वार देती है मनुष्य को, वह सेक्स का द्वार है। अब तक की शिक्षाओं ने वह द्वार भी बंद कर दिया और नया द्वार खोला नहीं! शक्ति भीतर घूमने लगी और चक्कर काटने लगी। और अगर नया द्वार शक्ति के लिए न मिले, तो घूमती हुई शक्ति मनुष्य को विक्षिप्त कर देती है, पागल कर देती है। और विक्षिप्त मनुष्य फिर न केवल उस द्वार से, जो सेक्स का सहज द्वार था, निकलने की चेष्टा करता है, वह दीवालों और खिड़कियों को तोड़ कर भी उसकी शक्ति बाहर बहने लगती है। वह अप्राकृतिक मार्गों से भी सेक्स की शक्ति बाहर बहने लगती है।
यह दुर्घटना घटी है। यह मनुष्य-जाति के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में से एक है। नया द्वार नहीं खोला गया और पुराना द्वार बंद कर दिया गया। इसलिए मैं सेक्स के विरोध में, दुश्मनी के लिए, दमन के लिए अब तक जो भी शिक्षाएं दी गई हैं, उन सबके स्पष्ट विरोध में खड़ा हुआ हूं। उन सारी शिक्षाओं से मनुष्य की सेक्सुअलिटी बढ़ी है, कम नहीं हुई, बल्कि विकृत हुई है।
क्या करें लेकिन? कोई और द्वार खोला जा सकता है?
मैंने आपसे कल कहा, संभोग के क्षण की जो प्रतीति है, वह प्रतीति दो बातों की है: टाइमलेसनेस और ईगोलेसनेस की। समय शून्य हो जाता है और अहंकार विलीन हो जाता है। समय शून्य होने से और अहंकार विलीन होने से हमें उसकी एक झलक मिलती है जो हमारा वास्तविक जीवन है। लेकिन क्षण भर की झलक और हम वापस अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। और एक बड़ी ऊर्जा, एक बड़ी वैद्युतिक शक्ति का प्रवाह, इसमें हम खो देते हैं। फिर उस झलक की याद, स्मृति मन को पीड़ा देती रहती है। हम वापस उस अनुभव को पाना चाहते हैं, वापस उस अनुभव को पाना चाहते हैं। और वह झलक इतनी छोटी है, एक क्षण में खो जाती है! ठीक से उसकी स्मृति भी नहीं रह जाती कि क्या थी झलक, हमने क्या जाना था? बस एक धुन, एक अर्ज, एक पागल प्रतीक्षा रह जाती है फिर उस अनुभव को पाने की। और जीवन भर आदमी इसी चेष्टा में संलग्न रहता है, लेकिन उस झलक को एक क्षण से ज्यादा नहीं पा सकता है।
वही झलक ध्यान के माध्यम से भी उपलब्ध होती है। मनुष्य की चेतना तक पहुंचने के दो मार्ग हैं–काम और ध्यान, सेक्स और मेडिटेशन। सेक्स प्राकृतिक मार्ग है, जो प्रकृति ने दिया हुआ है। जानवरों को भी दिया हुआ है, पक्षियों को भी दिया हुआ है, पौधों को भी दिया हुआ है, मनुष्यों को भी दिया हुआ है। और जब तक मनुष्य केवल प्रकृति के दिए हुए द्वार का उपयोग करता है, तब तक वह पशुओं से ऊपर नहीं है। नहीं हो सकता। वह सारा द्वार तो पशुओं के लिए भी उपलब्ध है।
मनुष्यता का प्रारंभ उस दिन से होता है, जिस दिन से मनुष्य सेक्स के अतिरिक्त एक नया द्वार खोलने में समर्थ हो जाता है। उसके पहले हम मनुष्य नहीं हैं, नाम मात्र को मनुष्य हैं। उसके पहले हमारे जीवन का केंद्र पशु का केंद्र है, प्रकृति का केंद्र है। तब तक हम उसके ऊपर नहीं उठ पाए, उसे ट्रांसेंड नहीं कर पाए, उसका अतिक्रमण नहीं कर पाए; तब तक हम पशुओं की भांति ही जीते हैं। हमने कपड़े मनुष्यों के पहन रखे हैं, हम भाषा मनुष्यों की बोलते हैं, हमने सारा रूप मनुष्यों का पैदा कर रखा है; लेकिन भीतर गहरे से गहरे मन के तल पर हम पशुओं से ज्यादा नहीं होते। नहीं हो सकते हैं। और इसीलिए जरा सा मौका मिल जाए और हमारी मनुष्यता को जरा सी छूट मिल जाए, तो हम तत्काल पशु हो जाते हैं।
हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। और हमें दिखाई पड़ गया कि आदमी के कपड़ों के भीतर जानवर बैठा हुआ है। हमें दिखाई पड़ गया कि वे लोग जो कल मस्जिद में प्रार्थना करते थे और मंदिर में गीता पढ़ते थे, वे क्या कर रहे हैं? वे हत्याएं कर रहे हैं, वे बलात्कार कर रहे हैं, वे सब कुछ कर रहे हैं! वे ही लोग जो मंदिरों और मस्जिदों में दिखाई पड़ते थे, वे ही लोग बलात्कार करते हुए दिखाई पड़ने लगे! क्या हो गया इनको?
अभी दंगा-फसाद हो जाए, अभी यहां दंगा हो जाए, और यहीं आदमी को दंगे में मौका मिल जाएगा अपनी आदमियत से छुट्टी ले लेने का और फौरन वह जो भीतर छिपा हुआ पशु है, प्रकट हो जाएगा! वह हमेशा तैयार है, वह प्रतीक्षा कर रहा है कि मुझे मौका मिल जाए। भीड़-भाड़ में उसे मौका मिल जाता है, तो वह जल्दी से छोड़ देता है अपना खयाल–वह जो बांध-बूंध कर उसने रखा हुआ है। भीड़ में मौका मिल जाता है उसे भूल जाने का कि मैं भूल जाऊं अपने को!
इसलिए आज तक अकेले आदमियों ने उतने पाप नहीं किए हैं, जितने भीड़ में आदमियों ने पाप किए हैं। अकेला आदमी थोड़ा डरता है कि कोई देख लेगा! अकेला आदमी थोड़ा सोचता है कि मैं यह क्या कर रहा हूं! अकेले आदमी को अपने कपड़ों की थोड़ी फिक्र होती है कि लोग क्या कहेंगे–जानवर हो! लेकिन जब बड़ी भीड़ होती है तो अकेला आदमी कहता है–अब कौन देखता है! अब कौन पहचानता है! वह भीड़ के साथ एक हो जाता है। उसकी आइडेंटिटी मिट जाती है। अब वह फलां नाम का आदमी नहीं है, अब एक बड़ी भीड़ है। और बड़ी भीड़ जो करती है वह भी करता है–हत्या करता है, आग लगाता है, बलात्कार करता है। भीड़ में उसे मौका मिल जाता है कि वह अपने पशु को फिर से छुट्टी दे दे, जो उसके भीतर छिपा है।
और इसीलिए आदमी दस-पांच वर्षों में युद्ध की प्रतीक्षा करने लगता है, दंगों की प्रतीक्षा करने लगता है। अगर हिंदू-मुस्लिम का बहाना मिल जाए तो हिंदू-मुस्लिम सही, अगर हिंदू-मुस्लिम का न मिले तो गुजराती-मराठी भी काम कर सकता है। अगर गुजराती-मराठी न हो, तो हिंदी बोलने वाला और गैर-हिंदी बोलने वाला भी काम कर सकता है। कोई भी बहाना चाहिए आदमी को, उसके भीतर के पशु को छुट्टी चाहिए। वह घबरा जाता है पशु भीतर बंद रहते-रहते। वह कहता है, मुझे प्रकट होने दो।
और आदमी के भीतर का पशु तब तक नहीं मिटता है, जब तक पशुता का जो सहज मार्ग है, उसके ऊपर मनुष्य की चेतना न उठे। पशुता का सहज मार्ग–हमारी ऊर्जा, हमारी शक्ति का एक ही द्वार है बहने का–वह है सेक्स। और वह द्वार बंद कर दें तो कठिनाई खड़ी हो जाती है। उस द्वार को बंद करने के पहले नये द्वार का उदघाटन होना जरूरी है, जीवन-चेतना नई दिशा में प्रवाहित हो सके।
लेकिन यह हो सकता है; यह आज तक किया नहीं गया। नहीं किया गया, क्योंकि दमन सरल मालूम पड़ा, रूपांतरण कठिन। दबा देना किसी बात को आसान है। बदलना, बदलने की विधि और साधना की जरूरत है। इसलिए हमने सरल मार्ग का उपयोग किया कि दबा दो अपने भीतर।
लेकिन हम यह भूल गए कि दबाने से कोई चीज नष्ट नहीं होती है, दबाने से और बलशाली हो जाती है। और हम यह भी भूल गए कि दबाने से हमारा आकर्षण और गहरा होता है। जिसे हम दबाते हैं, वह हमारी चेतना की और गहरी पर्तों में प्रविष्ट हो जाता है। हम उसे दिन में दबा लेते हैं, वह सपनों में हमारी आंखों में झूलने लगता है। हम उसे रोजमर्रा दबा लेते हैं, वह हमारे भीतर प्रतीक्षा करता है कि कब मौका मिल जाए, कब मैं फूट पडूं, निकल पडूं। जिसे हम दबाते हैं उससे हम मुक्त नहीं होते, हम और गहरे अर्थों में, और गहराइयों में, और अचेतन में, और अनकांशस तक उसकी जड़ें पहुंच जाती हैं और वह हमें जकड़ लेता है।
आदमी सेक्स को दबाने के कारण ही बंध गया और जकड़ गया। और यही वजह है, पशुओं की तो सेक्स की कोई अवधि होती है, कोई पीरियड होता है वर्ष में; आदमी की कोई अवधि न रही, कोई पीरियड न रहा। आदमी चौबीस घंटे, बारह महीने सेक्सुअल है! सारे जानवरों में कोई जानवर ऐसा नहीं है कि जो बारह महीने और चौबीस घंटे कामुकता से भरा हुआ हो। उसका वक्त है, उसकी ऋतु है; वह आती है और चली जाती है। और फिर उसका स्मरण भी खो जाता है। आदमी को क्या हो गया? आदमी ने दबाया जिस चीज को वह फैल कर उसके चौबीस घंटे और बारह महीने के जीवन पर फैल गई है।
कभी आपने इस पर विचार किया कि कोई पशु हर स्थिति में, हर समय कामुक नहीं होता। लेकिन आदमी हर स्थिति में, हर समय कामुक है। जैसे कामुकता उबल रही है, जैसे कामुकता ही सब कुछ है। यह कैसे हो गया? यह दुर्घटना कैसे संभव हुई है? पृथ्वी पर सिर्फ मनुष्य के साथ हुई है और किसी जानवर के साथ नहीं–क्यों?
एक ही कारण है, सिर्फ मनुष्य ने दबाने की कोशिश की है। और जिसे दबाया, वह जहर की तरह सब तरफ फैल गया। और दबाने के लिए हमें क्या करना पड़ा? दबाने के लिए हमें निंदा करनी पड़ी, दबाने के लिए हमें गाली देनी पड़ी, दबाने के लिए हमें अपमानजनक भावनाएं पैदा करनी पड़ीं। हमें कहना पड़ा कि सेक्स पाप है। हमें कहना पड़ा कि सेक्स नरक है। हमें कहना पड़ा कि जो सेक्स में है, वह गर्हित है, निंदित है। हमें ये सारी गालियां खोजनी पड़ीं, तभी हम दबाने में सफल हो सके। और हमें खयाल भी नहीं कि इन निंदाओं और गालियों के कारण हमारा सारा जीवन जहर से भर गया।….. 21 क्रमशः
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३