हम अपने ही द्वारा, अपने आपको नष्ट करने में लगे हैं “ओशो”
ओशो– हम जो भी कर रहे हैं, उसमें हम अपने को नष्ट कर रहे हैं। लोग, अगर मैं उनसे कहता हूं कि ध्यान करो, प्रार्थना करो, पूजा में उतरो, तो वे कहते हैं, समय कहां! और वे ही लोग ताश खेल रहे हैं। उनसे मैं पूछता हूं क्या कर रहे हो? वे कहते हैं, समय काट रहे हैं। उनसे मैं कहूं ध्यान करो। वे कहते हैं, समय कहां! होटल में घंटों बैठकर वे सिगरेट फूंक रहे हैं, चाय पी रहे हैं, व्यर्थ की बातें कर रहे हैं। उनसे मैं पूछता हूं क्या कर रहे हो? वे कहते हैं, समय नहीं कटता, समय काट रहे हैं।बड़े मजे की बात है। जब भी कोई काम की बात हो, तो समय नहीं है। और जब कोई बे—काम बात हो, तो हमें इतना समय है कि उसे काटना पड़ता है। ज्यादा है हमारे पास समय!
कितनी जिंदगी है आपके पास? ऐसा लगता है, बहुत ज्यादा है; जरूरत से ज्यादा है। आप कुछ खोज नहीं पा रहे, क्या करें इस जिंदगी का। तो ताश खेलकर काट रहे हैं। सिगरेट पीकर काट रहे हैं। शराब पीकर काट रहे हैं। सिनेमा में बैठकर काट रहे हैं। फिर भी नहीं कटती, तो सुबह जिस अखबार को पढ़ा, उसे दोपहर को फिर पढकर काट रहे हैं। शाम को फिर उसी को पढ़ रहे हैं।
कटती नहीं जिंदगी; ज्यादा मालूम पड़ती है आपके पास। समय बहुत मालूम पड़ता है और आप काटने के उपाय खोज रहे हैं।
पश्चिम में विचारक बहुत परेशान हैं। क्योंकि काम के घंटे कम होते जा रहे हैं। और आदमी के पास समय बढ़ता जा रहा है। और काटने के उपाय कम पड़ते जा रहे हैं। बहुत मनोरंजन के साधन खोजे जा रहे हैं, फिर भी समय नहीं कट रहा है।
आपको पता नहीं चलता। आप कहते रहते हैं कि कब जिंदगी के उपद्रव से छुटकारा हो! कब दफ्तर से छूटूं! कब नौकरी से मुक्ति मिले! कब रिटायर हो जाऊं! लेकिन जो रिटायर होते हैं, उनकी हालत देखें। रिटायर होते ही से जिंदगी बेकार हो जाती है। समय नहीं कटता।
यह सूत्र कहता है कि जो व्यक्ति परिवर्तन के भीतर छिपे हुए शाश्वत को समभाव से देख लेता है, वह फिर अपने आपको नष्ट नहीं करता।
नहीं तो हम नष्ट करेंगे। हम करेंगे क्या? इस क्षणभंगुर के प्रवाह में हम भी क्षणभंगुर का एक प्रवाह हो जाएंगे। और हम क्या करेंगे? इस क्षणभंगुर के प्रवाह में, इससे लड़ने में हम कुछ इंतजाम करने में, सुरक्षा बनाने में, मकान बनाने में, धन इकट्ठा करने में, अपने को बचाने में सारी शक्ति लगा देंगे और यह सब बह जाएगा। हम बचेंगे नहीं। वह सब जो हमने किया, व्यर्थ चला जाएगा।
थोड़ा सोचें, आपने जो भी जिंदगी में किया है, जिस दिन आप मरेंगे, उसमें से कितना सार्थक रह जाएगा? अगर आज ही आपकी मौत आ जाए, तो आपने बहुत काम किए हैं—अखबार में नाम छपता है, फोटो छपती है, बड़ा मकान है, बड़ी गाड़ी है, धन है, तिजोरी है, बैंक बैलेंस है, प्रतिष्ठा है, लोग नमस्कार करते हैं, लोग मानते हैं, डरते हैं, भयभीत होते हैं, जहां जाएं, लोग उठकर खड़े होकर स्वागत करते हैं—लेकिन मौत आ गई आज। इसमें से तब कौन—सा सार्थक मालूम पड़ेगा? मौत आते ही यह सब व्यर्थ हो जाएगा। और आप खाली हाथ विदा होंगे।
आपने जिंदगी में कुछ भी कमाया नहीं; सिर्फ गंवाया। आपने जिंदगी गंवाई। आपने अपने को काटा और नष्ट किया। आपने अपने को बेचा और व्यर्थ की चीजें खरीद लाए। आपने आत्मा गंवाई और सामान इकट्ठा कर लिया।
चार पैसे के लिए आदमी बेईमानी कर सकता है, झूठ बोल सकता है, धोखा दे सकता है। पर उसे पता नहीं कि धोखा, बेईमानी, झूठ बोलने में वह कुछ गंवा भी रहा है, वह कुछ खो भी रहा है। वह जो खो रहा है, उसे पता नहीं है। वह जो कमा रहा है चार पैसे, वह उसे पता है। इसलिए कौड़िया हम इकट्ठी कर लेते हैं और हीरे खो देते हैं।
कृष्ण कहते हैं, वही आदमी अपने को नष्ट करने से बचा सकता है, जिसको सनातन शाश्वत का थोड़ा—सा बोध आ जाए। उसके बोध आते ही अपने भीतर भी शाश्वत का बोध आ जाता है
जो हम बाहर देखते हैं, वही हमें भीतर दिखाई पड़ता है। जो हम भीतर देखते हैं, वही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। बाहर और भीतर दो नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं
☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
गीता दर्शन–(भाग–6) प्रवचन–160
कौन है आँख वाला—(प्रवचन—दसवां)