झूठ के लिए शिक्षित होना जरूरी है। जो समाज असभ्य हैं, वे कम बेईमान होते हैं “ओशो”

 झूठ के लिए शिक्षित होना जरूरी है। जो समाज असभ्य हैं, वे कम बेईमान होते हैं “ओशो”

ओशो– आप यह मत सोचें कि सत्य की यात्रा पर कोई कष्ट न होगा। अगर ऐसा होता कि सत्य की यात्रा पर कोई कष्ट न होता, तो दुनिया में इतना झूठ होता ही नहीं। सत्य की यात्रा पर कष्ट है। इसीलिए तो लोग झूठ के साथ राजी हैं। झूठ सुविधापूर्ण है। सत्य असुविधापूर्ण है। झूठ में कनवीनिएंस है। क्योंकि चारों तरफ झूठ है।यह जो कृष्ण का सूत्र है कि मन—वाणी की सरलता, सहजता, यह आपको खतरे में तो ले ही जाएगी। खतरे में इसलिए ले जाएगी, क्योंकि चारों तरफ जो लोग हैं, वे मन—वाणी से सरल नहीं हैं, जटिल हैं, छद्म, झूठ, चालाकी से भरे हैं। वे वही नहीं कहते हैं, जो कहना चाहते हैं। वे वही नहीं प्रकट करते हैं, जो प्रकट करना चाहते हैं। और ये इतनी परतें हो गई हैं झूठ की कि उनको खुद भी पता नहीं है कि वे क्या कहना चाहते हैं; उनको खुद भी पता नहीं है कि वे क्या करना चाहते हैं; उनको खुद भी पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं।तो निश्चित ही, जब कोई व्यक्ति यह निर्णय और संकल्प करेगा कि मैं सरल हो जाऊंगा, तो अड़चनें आएंगी, कठिनाइयां खड़ी होंगी। उन कठिनाइयों के डर से ही तो लोग झूठ के साथ राजी हैं। साधक का अर्थ है कि वह इन कठिनाइयों को झेलने को राजी होगा।

इसका यह अर्थ नहीं है कि आप जान—बूझकर समाज में अराजकता फैलाएं। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि आप जान—बूझ कर लोगों को परेशानी में डालें। इसका कुल इतना अर्थ है कि जब भी आपके सामने यह सवाल उठे कि मैं अपनी आत्मा को बेचूं और सुविधा को खरीदूं या सुविधा को तोड्ने दूं और आत्मा को बचाऊं, तो आप आत्मा को बचाना और सुविधा को जाने देना।

यह कोई जरूरी नहीं है कि आप चौबीस घंटे उपद्रव खड़ा करते रहें। लेकिन इतना खयाल रखना जरूरी है कि आत्मा न बेची जाए किसी भी कीमत पर। सुविधा के मूल्य पर स्वयं को न बेचा जाए, इतना ही खयाल रहे, तो आदमी धीरे— धीरे सरलता को उपलब्ध हो जाता है। और कठिनाई शुरू में ही होगी। एक बार आपका सत्य के साथ तालमेल बैठ जाएगा, तो कठिनाई नहीं होगी।

सच तो यह है, तब आपको पता चलेगा कि झूठ के साथ मैंने कितनी कठिनाइयां झेली और व्यर्थ झेली, क्योंकि उनसे मिलने वाला कुछ भी नहीं है।

सत्य के साथ झेली गई कठिनाई का तो परिणाम है, फल है। झूठ के साथ झेली गई कठिनाई का कोई परिणाम नहीं है, कोई फल नहीं है। एक झूठ बोलो, तो दस झूठ बोलने पड़ते हैं। क्योंकि एक झूठ को बचाना हो, तो दस झूठ की दीवाल खड़ी करनी जरूरी है। और फिर दस झूठ के लिए हजार बोलने पड़ते हैं। और इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होता। और एक झूठ से हम दूसरे पर पोस्टपोन करते जाते हैं, कहीं पहुंचते नहीं।

सत्य के लिए कोई इंतजाम नहीं करना होता। सत्य के लिए कोई दूसरे सत्य का सहारा नहीं लेना पड़ता।

झूठ के लिए स्मृति तो मजबूत चाहिए। इसीलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो समाज अशिक्षित हैं, वहां झूठ कम प्रचलित होता है। क्योंकि झूठ के लिए शिक्षित होना जरूरी है। जो समाज असभ्य हैं, वे कम बेईमान होते हैं। क्योंकि बेईमानी के लिए जितनी कुशलता चाहिए, वह उनके पास नहीं होती। जैसे ही लोगों को शिक्षित करो, बेईमानी बढ़ने लगती है उसी अनुपात में। लोगों को शिक्षा दो, उसी के साथ झूठ बढने लगता है, क्योंकि अब वे कुशलता से झूठ बोल सकते हैं। झूठ के लिए कला चाहिए। सत्य के लिए बिना कला के भी सत्य के साथ जीया जा सकता है। झूठ के लिए आयोजन चाहिए।

इस बात को ऐसा समझें कि असत्य के साथ पहले सुविधा होती है, बाद में असुविधा होती है। सत्य के साथ पहले असुविधा होती है, बाद में सुविधा होती है। जिनको हम संसार के सुख कहते हैं, वे पहले सुख मालूम पड़ते हैं, पीछे दुख मालूम पड़ते हैं। और जिनको हम अध्यात्म की तपश्चर्या कहते हैं, वह पहले कष्ट मालूम पड़ती है और पीछे आनंद हो जाता है।

☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
गीता दर्शन–(भाग–6) प्रवचन–154
समत्‍व और एकीभाव